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अहिंसा के अछूते पहलु
शून्य प्रवृत्ति अनैतिक होती है ।
यही शुभ-अशुभ, सत्-असत्, अच्छे-बुरे व्यवहार की कसौटी बनतीं है । यह सार्वभौम है, व्यापक है, देशातीत और कालातीत है । इसमें न व्यक्ति का भेद है, न देश और काल का भेद है, न किसी धर्म और संप्रदाय का भेद है । यदि इस कसौटी के आधार पर हम व्यवहार की समस्या को सुलझाएं, व्यवहार का मूल्यांकन करें तो नैतिकता की धारणा को स्पष्ट करने में बड़ी सुविधा होती है ।
ध्यान का प्रयोजन है संस्कारों की शुद्धि करना, चित्त को शुद्धि करना । जैसे-जैसे चित्त की शुद्धि होगी, बात सुलझती जाएगी। जब चित्त की शुद्धि नहीं होती, हम छोटी बातों में अटक जाते हैं ।
एक व्यक्ति ने अपने मित्र से कहा- तुम्हारा नौकर तो बड़ा अच्छा है । बताओ, वह रसोई कैसी बनाता है ? उसने कहा- जैसा वेतन देता हूँ वैसी रसोई बनाता है । वह बोला, यह कैसी बात ? वेतन और रसोई का यह कैसा सम्बन्ध ? उसने कहा, तुम नहीं समझे । मैं न तो उसे पूरा वेतन देता हूं और न समय पर देता हूं । इसलिए वह रसोई भी न पूरी बनाता है. और न समय पर बनाता है ।
जब हम कोई छोटी बात करते हैं तो उससे कोई बड़ी बात नहीं निकाली जा सकती ।
दृष्टिकोण व्यापक बने
यदि हम व्यापक दृष्टिकोण से चिंतन करें तो नैतिकता की हमारी यह कसौटी व्यवहार के मूल्यांकन में बहुत सहयोगी होगी । यह सुचिंतित और सुपरीक्षित भी होगी। इसके आधार पर सारे व्यवहार की समस्या को सुलझाया जा सकेगा । ध्यान का उद्देश्य भी यही है । यदि उसका उद्देश्य कोई छोटा-मोटा होता तो वही उलझनें पैदा हो जातीं । यदि उद्देश्य होता कि इच्छा पूरी हो, यह हो, वह हो तो फिर अधूरे वेतन वाली बात का परिणाम ही आता । हमारा उद्देश्य है कि बंधन टूटे, संस्कार क्षीण हों, चित्त की निर्मलता घटित हो । कई बार ध्यान जाता है कि आदमी व्यावहारिक बातों में क्यों उलझ जाता है । वह जहां कहीं जाता है, मांग ही मांग करता है । धर्मगुरु के पास भी मांग रख देता है । मैं कहता हूं-अरे, भले आदमी ! एक स्थान तो ऐसा रखो कि जहां तुम मांगों से अतीत हो जाओ। स्वामी विवेकानन्द ने बहुत बड़ा एक काम किया । ध्यान करने का एक बड़ा हॉल था । वहां परमहंस का चित्र टंगा हुआ था। विवेकानन्द ने उसे उतरवा दिया। लोगों ने कहा- परमहंस आपके गुरु हैं । उनका चित्र उतरवा दिया ? विवेकानन्द बोले - एक स्थान तो ऐसा हो जो अद्वैत हो ।
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