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________________ १६४ अहिंसा के अछूते पहलु उस व्यक्ति में सुख की भावना भी समाप्त हो जाती है। सामान्य आदमी कहता है, मैं धर्म करूंगा तो मुझे स्वर्ग मिलेगा। एक भाई ने कहा, महाराज ! मैं साठ वर्ष का हो रहा हूं। मुझे ऐसा कोई गुर बता दें जिससे नरक न मिले, स्वर्ग मिले। ___ यह आदमी की शाश्वत इच्छा है कि वह नरक नहीं चाहता, स्वर्ग चाहता है। नरक का अर्थ है दुःख । स्वर्ग का अर्थ है सुख । यह इच्छा निरंतर बनी रहती है। किन्तु जिस व्यक्ति ने नैतिकता और अध्यात्म को समझा है, चेतना के परिष्कार को समझा है, वह स्वर्ग की इच्छा को भी छोड़ देता है । वह न नरक से घबराता है और न स्वर्ग के लिए लालायित रहता है। उसमें एक नई चेतना जाग जाती है। क्या है नैतिकता की कसौटी ? प्रश्न होता है कि नैतिकता की कसौटी क्या होगी? हम किस व्यवहार को अच्छा माने ? सुख या दुःख के आधार पर किसी व्यवहार को अच्छा या बुरा न मानें तो फिर और उपाय ही क्या है ? सत्-असत्, भलाबुरा, शुभ-अशुभ की कसौटी क्या होगी? ___इस विषय में दो चिंतन प्रस्तुत होते हैं। पहला चिंतन तो यह है कि जिस देश और काल में जिस कर्म या व्यवहार को समाज के द्वारा या बड़े . जन-समूह के द्वारा वांछनीय मान लिया गया, वह नैतिक है और जो व्यवहार अवांछनीय माना गया, वह अनैतिक है । यह लौकिक स्वीकृति है। यह नितांत व्यावहारिक कसौटी है, सार्वभौम कसौटी नहीं है। इसे यथार्थ नहीं कहा जा सकता। चार-पांच हजार वर्षों के इतिहास में नैतिकता की अनेक परिभाषाएं हुई है और वे परस्पर बहुत टकराती हैं। वे बदलती रहती हैं, एक रूप नहीं रहतीं। एक देश और काल में एक कर्म को नैतिक माना गया है और वही कर्म दूसरे देश-काल में अनैतिक मान लिया गया, यह सारा व्यवहार के धरातल पर होता है । इसलिए ये सारी व्यावहारिक कसौटियां हैं। नैतिकता की वास्तविक कसौटी हम नैतिकता की वास्तविक कसौटी की चर्चा करें जो सार्वभौम है, देशातीत और कालातीत है । कसौटी है-जे निज्जिण्णे से सुहे। यह वास्तविक कसौटी है। जिस आचरण के द्वारा बंधे हुए संस्कार क्षीण होते हैं, निर्जीर्ण होते हैं वह आचरण है नैतिक । जिस आचरण से संस्कार बंधते हैं, सघन होते हैं, वह है अनैतिक । जो निर्जरा है वह सुख है और जो बंध है वह दुःख है। सुख और दुःख की यह वास्तविकता ही नैतिकता की कसौटी बन सकती है, किंतु सुख और दुःख की स्वीकृति में बहुत अन्तर आ गया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003065
Book TitleAhimsa ke Achut Pahlu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size9 MB
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