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मैतिकता और व्यवहार
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यह तथ्य है | जब तक ऐसा जीवन नहीं जिया जाता जब तक मूर्च्छा-भंग नहीं होती और मूर्च्छा-भंग के बिना सफलता नहीं मिलती । मूर्च्छा को तोड़ने के लिए कठोर जीवन जीना एक अनिवार्यता है । सुविधा मूर्च्छा को पुष्ट करती है, उसे बढ़ाती है । जिस व्यक्ति ने सुविधा का जीवन का जिया है, उसकी मूर्च्छा बहुत सघन हो जाती है ।
सुविधा दो प्रकार की होती है - शारीरिक सुविधा और मानसिक सुविधा । ये दोनों मूर्च्छा को बढ़ाती हैं । इस सघन मूर्च्छा को तोड़ना फिर कठिन हो जाता है । जब तक कष्ट और दुःख को सहने की क्षमता और प्रतिकूल परिस्थिति को झेलने का साहस नहीं आता तब तक मूर्च्छा-भंग नहीं हो सकता ।
इस समीक्षा के आधार पर यह कसौटी ठीक नहीं बैठती कि जो सुखद है वह नैतिक है और जो दुःखद है वह अनैतिक है । हमारे ऐसे अनेक व्यवहार हैं, जो दुःख देने वाले होकर भी नैतिक हैं और बहुत सारे ऐसे व्यवहार भी हैं जो सुखद होने पर भी नैतिक नहीं हैं। इसलिए मनोवैज्ञानिक सुखवाद की कसौटी उचित नहीं लगती । यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, यह स्वाभाविकता है किंतु यह कसौटी नहीं बन सकती नैतिकता की ।
इच्छा एक बाधा है
एक बार एक विद्वान ने तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु द्वारा मान्य अहिंसा की समीक्षा करते हुए लिखा - 'भगवान महावीर ने कहा है कि सभी प्राणी सुख चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता इसलिए सबको सुख दो और आचार्य भिक्षु कहते हैं कि सुख देना धर्म नहीं है ।' मैंने लिखा, भगवान के कथन का तात्पर्य ठीक नहीं समझा गया । जीव सुख चाहते हैं, दुःख नहीं चाहते, यह स्वाभाविकता का निरूपण है । इसका अर्थ यह नहीं है कि सुख दो, दुःख मत दो | भगवान ने केवल परिस्थिति का निरूपण किया है, मानसिकता का निरूपण किया है । किंतु प्रत्येक प्राणी की सुख पाने और दुःख न पाने की इच्छा निम्नस्तरीय इच्छा है । उच्चस्तरीय विकास होने पर यह इच्छा नहीं होती, समाप्त हो जाती है । इच्छा का इतना परिष्कार हो जाता है कि मोक्ष की इच्छा भी समाप्त हो जाती है । साधना की उच्च भूमिका पर पहुंचा हुआ साधक इच्छा मुक्त हो जाता है । उसमें मोक्ष की इच्छा भी शेष नहीं रहती । वास्तव में मोक्ष की प्राप्ति तभी होती है जब यह इच्छा भी समाप्त हो जाती है । मोक्ष की इच्छा भी एक बाधा है । इच्छा करना बाधा है । जो व्यक्ति स्वयं में लीन होता है, अपने आप में होता है, उसमें इच्छा की बात समाप्त हो जाती है ।
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