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अहिंसा के अछूते पहलु चिंता करना और दूसरी है बपौती पर स्वयं का अधिकार होना। जो व्यक्ति सात पीढ़ी को सुखी बनाने की कल्पना से चलता है वह अनैतिक व्यवहार क्यों नहीं करेगा ? जब व्यक्ति अपने जीवन की चिंता करता है कि मुझे ५०, ६०, ६० वर्ष तक जीना हैं, उस जीवन को कैसे जीऊं, जिससे शांति बनी रहे, इस चिंतन के परिप्रेक्ष्य में दूसरे प्रकार का व्यवहार और आचरण होगा। जो बेटे-पोते को सुखी बनाने की चिंता में जीता है, उसका व्यवहार भिन्न होगा, आचरण भिन्न होगा।
सीधा धन मिलना भी समस्या पैदा करता है। व्यक्ति को आलसी और विलासी बनाता है। जिस व्यक्ति ने स्वयं धन नहीं कमाया, पसीना नहीं बहाया, पुरुषार्थ नहीं किया, बाप-दादों की कमाई जिसे सीधी मिल गई, वह यदि बुराइयों से बचे तो विलक्षण बात है और न बचे तो स्वाभाविक बात है, क्योंकि वह धन उसे प्रमाद से मिला है इसलिए उसे प्रमत्त बनाएगा ही। उसे यह अनुभव ही नहीं है कि पैसा कैसे कमाया जाता है इसीलिए वह पैसे को पानी की तरह बहाने में नहीं हिचकता। यह प्रवृत्ति उसे बुराइयों में ढकेलती है । वह उस समय सोच नहीं पाता। जरूरी है सुखवादी चिन्तन का बदलना
इन समस्याओं के संदर्भ में जब हम नैतिकता की बात करते हैं तो सुखवादी और सुविधावादी चिंतन को भी बदलना जरूरी होता है। सीधा मिला हुआ या सुख से मिला हुआ धन पग-पग पर खतरा उपस्थित करता है । जो व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के द्वारा कष्ट सहकर कमाता है, उसका धन दुःख 'पड़ने पर भी नष्ट नहीं होता और सुख से प्राप्त धन शीघ्र खत्म हो जाता है। इसलिए यह अनुभव वाणी है कि सुख से भावित ज्ञान या सुख से भावित प्राप्ति दुःख आने पर चली जाएगी। दुःख से भावित ज्ञान या प्राप्ति दुःख-काल में जाती नहीं, साथ देती है। जो सैनिक सदा आराम-तलबी का जीवन बिताते हैं, वे युद्ध की वेला में विजयी नहीं बन सकते । जिन सैनिकों ने कष्ट सहा है, कष्ट से अपने आपको तपाया है, अपने आपको कष्टों में खपाया है, वे विकट स्थिति में भी विजय पा लेते हैं।
जर्मनी ने अफ्रीका पर आक्रमण किया। सैनिक लडखडा गए, क्योंकि वे वहां की गर्मी को बर्दास्त नही कर सके। वे ठंडे मुल्क के वासी थे। उन सैनिकों को उस गर्मी में रखा गया, उस गर्मी से अभ्यस्त किया गया और फिर सफलता मिल गई। सुविधा से मूर्छा में वृद्धि
एक संन्यासी, तपस्वी, साधक या मुनि को कष्ट सहने पड़ते हैं, दुःख सहने पड़ते हैं, कठोर जीवन जीना होता है, अभाव का जीवन जीना होता है ।
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