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नैतिकता और व्यवहार
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चेतना को जगाने के लिए आता है । नया संकट आता है, आदमी दुःखी बन जाता है और उस दुःख के कारण उसमें नई जागृति आती हैं । अनेक भक्तसाधकों के प्रार्थना के स्वर हैं- भगवान् ! यदि आप मुझे वर देना चाहें तो मेरी यह मनोकामना पूरी करें कि मुझे दुःख आता रहे । कुंती ने भगवान् से प्रार्थना की- मुझे दुःख मिले। पूछा गया, क्यों ? उसने कहा- दुःख आता है तो आपकी स्मृति होती है। सुख में आपकी विस्मृति हो जाती हैं । यह दोहा भी इसी का प्रतीक है
"दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय । जो 'में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होय || "
सुख
यह अनुभूति का स्वर है । दुःख में सारे भगवान् याद आ जाते है । जब सुख आता है तब भक्त उन भगवानों को सुला देता है, भूल जाता है इस दृष्टि से दुःख बुरा नहीं होता ।
पहाड़ पर चढ़ना कठिन होता है, पर ऊपर जाने के पश्चात् सुख की जो अनुभूति होती है, वह नीचे खड़े व्यक्ति को नहीं होती । चढ़ते समय कष्ट होता है, दुःख होता है पर शिखर का स्पर्श करते ही वह भुला दिया जाता
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स्थायी होता है दुःख से प्राप्त ज्ञान
कुछ लोग कहते हैं -- जैन मुनि बहुत कष्ट सहते हैं, दुःख झेलते हैं । ऐसे कष्टमय या दुःखमय जीवन से क्या होना जाना है ? जीवन में सुख होना चाहिए | यह एक यथार्थ है कि जिस व्यक्ति ने सुख से जो पाया, वह थोड़ा-सा दुःख आने पर चला जाएगा। एक आचार्य ने लिखा है - सुहेण भावितं नाणं, दुहे जादे विणस्सति ।
आचार्य कुंदकुंद और उत्तरवर्ती आचार्यों ने इस गाथा का अनुसरण किया है । वे कहते हैं - सुख से भावित ज्ञान दुःख आने पर समाप्त हो जाता है । दुःख से प्राप्त ज्ञान, दुःख से भावित ज्ञान दुःख आने पर नष्ट नहीं होता । हमारी यह जनभाषा है कि सीधी पूंजी किसी को हस्तगत होती है तो वह खतरा पैदा करती है । वह बहुत सताती है । आज जो अनैतिकता की समस्या है उसका एक कारण यह भी है । बाप का धन बेटे को मिल जाता है । यह वास्तव में एक समस्या है। साम्यवादी शासन प्रणाली में स्वामित्व की सीमा की गई और उत्तराधिकार की बात समाप्त की गई कि बाप का धन बेटे को नहीं मिलेगा । यह बात एक सीमा तक उचित है और अनैतिकता के लिए अवरोधक है ।
दो भ्रांतियां भारतीय जीवन में
दो भ्रांतियां भारतीय जीवन में चल रही हैं। एक है सात पीढ़ी की
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