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________________ मैतिकता और मन का खेल १४७ हैं । आदमी कल्पनाएं करता रहता है। न जाने आदमी कितने मनसूबे बांधता है ! ये कल्पनाएं अनैतिकता के लिए बहुत अच्छा आलंबन और सहारा बनती हैं। अनैतिक होने में इनका बड़ा हाथ होता है । एक कल्पना वह होती है, जिसे वास्तविक कहा जा सके, तर्क-संगत कहा जा सके । किन्तु आदमी आधारहीन और ऐसी कल्पना कर लेता है, जिसका न सिर होता है और न पैर होता है। उसी के सहारे चलता है। वह पूरी नहीं होती है तो दुःख भोगता है । सारी कल्पनाएं मन के खेल हैं। मूल समस्या क्या है ? जब तक इन मन के खेलों से आदमी परे नहीं हो जाता तब तक नैतिकता की बात सोचना कठिन है। बहुत प्रयत्न हो रहा है कि समाज में नतिकता आए। किन्तु सारे प्रयत्न उल्टी दिशा में जा रहे हैं। प्रश्न है नैतिकता का और समस्या है कि अनैतिकता बढ़ती जा रही है। प्रश्न है स्वास्थ्य का और बीमारियां बढ़ती जा रही हैं। दवाइयां बढ़ रही हैं; हॉस्पीटल बढ़ रहे हैं, साथ-साथ बीमारियां भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही हैं। नई-नई बीमारियां पैदा हो रही हैं । यही बात धर्म के क्षेत्र में घटित हो सकती है । धर्म का उपदेश भी बहुत बढ़ रहा है और धर्म के गुरु भी बहुत बढ़ रहे हैं। धर्म के क्षेत्र में बीसों भगवान् और अवतार पैदा हो गए हैं। नए-नए अवतार और भगवान् पैदा हो रहे हैं। धर्म के प्रवक्ता भी बढ़ रहे हैं और साथ-साथ उतनी ही तेजी से अनैतिकता भी बढ़ रही है। ऐसा क्यों ? इसका क्या कारण है ? जब तक मूल समस्या पर ध्यान नहीं जाएगा, समाधान नहीं मिलेगा। जरूरी है मूल समस्या को पकड़ना । मूल को बदलना आवश्यक सेठ का एक लड़का काफी व्यसनी हो गया। वह शराब पीता है, जूआ खेलता है, चोरी भी करता है। जितने व्यसन हैं, उन सबमें वह लिप्त है। एक दिन सेठ ने अपने मित्र से कहा, भाई ! मैंने बहुत प्रयत्न कर लिया पर वह कोई बात स्वीकार ही नहीं करता। मैं जानता हूं-वह शराब पीता है, जआ खेलता है। पूछने पर वह इन बातों को अस्वीकार कर देता है। कभी कहीं पकड़ में ही नहीं आता। घर और शरीर-दोनों को बरबाद कर रहा है । अगर तुम समझा सको तो बड़ा उपकार होगा। मित्र सेठ को आश्वस्त कर चला गया। कुछ दिन बाद सेठ का मित्र उस लड़के के पास बैठा। उससे बात की। बातचीत के प्रसंग में उसने कहा-बोलो भाई ! तुम्हारे भीतर कोई बुराई तो नहीं है ? बिलकुल नहीं है। जूआ तो खेलते ही हो ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003065
Book TitleAhimsa ke Achut Pahlu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size9 MB
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