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________________ नैतिकता और मन का खेल સ दुःख को मिटाने के लिए चल रही है। आदमी बड़ा दुःख का अनुभव कर रहा है । समस्या है रोटी की, एक बड़ा दुःख है । समस्या है लड़के-लड़कियों के विवाह की, एक बड़ा दुःख है । समस्या है मकान बनाने की, बड़ी समस्या है । समस्या है अच्छा जीवन जीने की । भौतिक समस्याएं हैं और इनसे आगे बड़ा आदमी बनने की समस्या है, धनकुबेर बनने की समस्या है, प्रसिद्धि पाने की समस्या है। सारे शारीरिक और मानसिक दुःख हैं और आदमी इन्हें बहुत भोग रहा है । दुःख है चंचलता में प्रश्न होता है - दुःख क्यों हैं ? कब तक हैं ? योग के आचार्यों ने दो शब्द दिये- समाहित चित्त और विक्षिप्त चित्त । विक्षिप्त चित्त के लिए ये सारे दुःख होते हैं और समाहित चित्त को कोई दुःख नहीं होता । दुःख की अवस्था पैदा होती है विक्षिप्त चित्त में और जब चित्त समाहित होता है तो दुःख समाप्त हो जाता है । अभाव हो सकता है, पर दुःख नहीं हो सकता । समस्या हो सकती है पर दुःख नहीं हो सकता । समस्या होना एक बात है और दुःख का संवेदन होना बिलकुल दूसरी बात है। अभाव होना एक बात है और उसका संवेदन होना बिलकुल दूसरी बात है। ऐसा आदमी जो हिमालय पर एक झोंपड़ी में बैठा है, पास में कोरा कंबल है और ताप के लिए धूनी है, बड़ा सुख का अनुभव करता है । एक आदमी जिसके पास बड़ा प्रासाद है और सारे सुख के साधन हैं, कहीं से भी सर्दी-गर्मी नहीं आ रही है पर भीतर में इतनी सर्दी और गर्मी है कि उसका कहीं अंत ही नहीं आता । प्रश्न हैदुःख कहां से आता है ? दुःख है चंचलता में । जिसने अपनी चंचलता को कम कर दिया उसके लिए दुःख कम हो गए। जिसने चंचलता को कम नहीं किया, उसके लिए दुःख ही दुःख है । जब दुःख होता है और चित्त असमाहित होता है, विक्षिप्त होता है तो आदमी अनैतिक बन जाता है । उसके लिए अनैतिकता अनिवार्य बन जाती है । दुःख कैसे मिटाए ? जिसको दुःख मान रखा है, उसे कैसे मिटाएं? मनुष्य को बहुत धन चाहिए। मन में एक चंचलता पैदा हो गई कि धन कमाना है, समृद्धिशाली बनना है पर कैसे बनूं ? पुरुषार्थ से तो जितना आता है उतना ही आता है । तब जैसे-तैसे बनने की एक भावना पैदा होती है उस विक्षिप्त मन के द्वारा । यह बिन्दु है, जहां से साधन-शुद्धि का विचार समाप्त हो जाता है । कोई साधन-शुद्धि नहीं रहती । संबंध इच्छा और मन का इच्छा और मन की चंचलता - ये दो हैं । इच्छा स्वतंत्र है । उसका मन से कोई संबंध नहीं है । जिसके मन होता है उसमें भी इच्छा होती है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003065
Book TitleAhimsa ke Achut Pahlu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size9 MB
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