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________________ १७. नैतिकता और मन के खेल वर्तमान का समाज मानसिक धरातल पर अधिक जी रहा है। जो समाज मन के धरातल पर जीता है, उसके लिए नैतिक होने में कठिनाई हो जाती है। आज जो नैतिकता की समस्या है, वह मूलत: मानसिक समस्या है । मानसिकता बदलती है, आदमी नैतिक बन जाता है । मानसिकता अच्छी नहीं होती है तो आदमी अनैतिक बन जाता है। नैतिकता का संबंध जितना मानसिकता से है उतना भौतिकता से या पदार्थ से नहीं है। पदार्थ के साथ नैतिकता का संबंध बाद में है और मानसिकता के साथ पहले है। प्रश्न है नैतिकता का समाधान खोजने वाले पदार्थ की स्थिति को बदलना चाहते हैं। अगर पदार्थ की स्थिति बदल जाए तो आदमी नैतिक बन जाए। यह शायद बहुत बड़ी भ्रांति है । इस भ्रांति में चलने वाला नैतिक नहीं हो सकता। प्राकृतिक प्रकोप आता है तब अकाल आ जाता है। जब समुद्री तूफान आता है, हजारों-हजारों, लाखों आदमी चपेट में आ जाते हैं। पदार्थ की स्थिति बदलती रहती है। किन्तु नैतिकता ऐसा तत्त्व नहीं है जो स्थिति के साथ बदल जाए। आज जो समाज नैतिक है और कल ऐसी स्थिति आई कि वह अनैतिक बन जाए। ऐसा नहीं होता। पदार्थ की स्थितियां तो बदल सकती हैं किन्तु नैतिकता इस प्रकार नहीं बदल सकती । नैतिकता हमारी एक मनोरचना है, मानसिकता है और वह ऐसे बदलती नहीं। मन की चंचलता के साथ जो समाज जीता है, उसके लिए नैतिक होने में बड़ी कठिनाई पैदा हो जाती है। अनैतिकता का कारण नैतिकता कब संभव है ? यह एक ज्वलन्त प्रश्न है। इसका सीधा उत्तर है-जिस दिन मन के खेल खेलना आदमी बंद कर देता है, उस दिन नैतिकता की संभावना उज्ज्वल बन जाती है । मन का खेल बहुत चलता है । दुःख क्या है। मन का खेल है। महर्षि पतंजलि ने कहा- 'दुःख-वैमनस्य-अंगमेजयत्वश्वास-प्रश्वासाः विक्षेपसहभुव:-ये चार बातें मन की चंचलता के साथ पैदा होती हैं । पहली बात है-दुःख । दूसरी है-वैमनस्य । तीसरी है-प्रकंपन । चौथी बात है-तेज श्वास और प्रश्वास । ये चारों मन की चंचलता के साथ जन्म लेती हैं। यदि विक्षेप नहीं है, मन की विक्षिप्त अवस्था नहीं है, चंचलता नहीं है तो दुःख पैदा नहीं हो सकता। आज जो अनैतिकता चल रही है वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003065
Book TitleAhimsa ke Achut Pahlu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size9 MB
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