SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैतिकता और अचेतन मन १३६ समीक्षा करें इच्छा की एक युवक ने पैर पर पट्टी बांध ली। किसी ने पूछा-भाई ! पैर में पट्टी क्यों बांधी है ? बोला, मेरे पड़ोसी की टांग टूट गई है। उसने पट्टा बंधाया तो उसकी सहानुभूति में मैंने भी पट्टी बांध ली। इसका कोई अर्थ नहीं है। प्रत्येक इच्छा की सबसे पहले हमें समीक्षा करनी चाहिए कि इस इच्छा को पूरा करने से क्या लाभ होगा? न करने से क्या हानि होगी ? इसका परिणाम क्या होगा? बीमार आदमी को मिठाई खाने की इच्छा हो गई। पेट खराब और पाचन की स्थिति बिलकुल कमजोर । पचा नहीं सकता कोरा दलिया भी, गरिष्ठ मिठाई को कैसे पचा पाएगा? पर इच्छा पैदा हुई है, क्या करे ? इच्छा को पूरा करे या इच्छा का दमन करे ? पूरा करे तो भी सताएगी और दमन करे तो भी सताएगी । स्वास्थ्य भी बिगड़ जाएगा । ऐसी स्थिति में वह क्या करे ? उस समय यदि अनुप्रेक्षा का प्रयोग कराया जाए या किया जाए तो बहुत अच्छा समाधान मिल सकता है। भोजन के प्रत्येक पहल पर विचार करना, खाने पर विचार करना, खाने के परिणाम पर विचार करना, यह आवश्यक है। "उतर्यो घाटी, हुयो माटी" यह सूत्र अनुप्रेक्षा का ही सूत्र है। स्वाद कितनी देर का है ? बस, जीभ पर डाला उतनी ही देर का है स्वाद । स्वाद का समय तो कुछ ही देर का होता है और वह भी उनके लिए जो ज्यादा लोलुप होते हैं, आसक्त होते हैं। उनका ध्यान आसक्ति में ही लगा रहता है। जीभ के सारे तन्तु स्वाद को ग्रहण नहीं करते । उसके कुछ ही तन्तु स्वाद को ग्रहण करते है। अगर वहां तक खाद्य पदार्थ नहीं जाता है और सीधा उतर जाता है तो स्वाद पूरा आता ही नहीं है। स्वाद के क्षण भी बहुत कम हैं। फिर आसक्ति किस काम की ? रुचि किस बात की ? लोलुपता किस बात की ? खाने की आसक्ति नहीं है, किन्तु एक संस्कार भीतर बना हुआ है, बन्धन बना हुआ है और वह बन्धन जब जाग जाता है तब वह एक इच्छा पैदा कर देता है, वृत्ति पैदा कर देता है । पतंजलि ने कहाचित्त में जो वृत्तियां पैदा होती हैं, चित्त में जो तरंगे पैदा होती हैं उनका निरोध करने का नाम है योग । वृत्ति को रोकना जरूरी है । इच्छा को सफल बनाना जरूरी नहीं है। इच्छा को विफल करना भी आवश्यक एक क्षत्रिय बारह वर्ष तक शत्रु की खोज में घूमता रहा । बारह वर्ष के बाद सफलता हाथ लगी । वह अपने दुश्मन को पकड़ कर अपने घर के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003065
Book TitleAhimsa ke Achut Pahlu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy