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सही निदान : सही चिकित्सा
१२५ चला गया। जीवन का हर क्षण अस्थिर है । मैं भी अस्थिर हूं और मेरा लड़का भी अस्थिर है। अस्थिर था इसलिए चला गया। यदि नहीं होता तो नहीं जाता फिर मैं क्यों दुःख करूं ।
यह एक सत्य समझ में आ जाता है तो हमारी आस्था का आधार बन जाता है। हमारी आस्था बदल जाती है। हमें इस बात का अन्वेषण करना है कि हमने किस आस्था को पकड़ा है और किस आस्था के आधार पर अपना कदम आगे बढ़ाया है ? हमारी आस्था क्या है ? क्या हमने इस सचाई को पकड़ा है और इस आस्था को बनाया है कि जीवन का हर क्षण अस्थिर है ? आस्था का महत्त्वपूर्ण सूत्र
भगवान महावीर की वाणी में एक बड़ा मार्मिक संकेत मिलता है, आस्था का महत्त्वपूर्ण सूत्र उपलब्ध होता है। जब एक साधक के मन में, एक आध्यात्मिक व्यक्ति के मन में कोई काम जागे, लालसा जागे, भोग की भावना जागे, आहार की आसक्ति जागे तब वह सोचे–'न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई' ये दु:ख, जो मुझे सता रहे हैं, चंचल बना रहे हैं, वे क्षणिक हैं, स्थाई नहीं हैं । आज गर्मी का मौसम है। एक मुमुक्षु सोचे-मेरा भाई संसार में है। पंखे के नीचे बैठता होगा, कूलर भी चलता होगा, बर्फ या आईस्क्रीम खाता होगा, ठंडे पेय पीता होगा। हम पारमार्थिक शिक्षण संस्था में आ गए। न कूलर, न ठंडा पेय और न आईस्क्रीम । कुछ भी नहीं है। कैसा जीवन ? वे कितने सुख में जी रहे हैं और हम कहां आ गए ? मन में ऐसी बात आ सकती है और ऐसी बात कभी आ जाए तो आस्था का सूत्र क्या होगा ? 'न मे चिरं दुःखमिणं भविस्सई'। चाहे गर्मी सता रही है, चाहे खाने की कोई इच्छा सता रही है। प्रत्येक मुमुक्षु सोचे-यह दुःख चिरकालिक नहीं है । सब अशाश्वत है, कोई भी शाश्वत नहीं है। दुःख का क्षण आया है और चला जाएगा। दूसरा क्षण आ जाएगा। हमेशा एक-सा पर्याय नहीं रहता। कभी राग का पर्याय आ गया, कभी द्वेष का पर्याय आ गया, कभी वीतरागता का पर्याय आ गया। पर्याय बदलता रहता है। ये जितनी कामनाएं, जितनी वासनाएं, जितनी इच्छाएं और जितनी आकांक्षाएं पैदा होती हैं, वे सब क्षणिक हैं और क्षण भर के बाद चली जाने वाली हैं। यदि इस सचाई को हम पकड़ लेते हैं तो हमें दुःख नहीं होता, अपनी आस्था से डगमगाने का मौका नहीं मिलता। चिकित्सा हर बीमारी की
ऐसा भी हो सकता है कोई ऐसी आकांक्षा जाग जाए, जो बहुत
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