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सही निदान : सही चिकित्सा
१२१ बदमाश है, जहां भी जाता है समस्या पैदा कर देता है। किन्तु अपने आपको गलत नहीं मानता। यह है मिथ्या दृष्टिकोण । उसने अपनी धारणा मिथ्या बना ली। अपने से विपरीत आचरण वाले को तो गलत मानता है और अपने गलत आचरण को सही मानता है । अपने इस मिथ्या दृष्टिकोण के कारण वह गलत बात को पोषण दे रहा है, बीमारी को पोषण दे रहा हैं। बीमारी को सबसे ज्यादा पालने का साधन बनता है-मिथ्या दृष्टिकोण । कोई पर्याय शाश्वत नहीं
जिस व्यक्ति का दृष्टिकोण सही नहीं है, जिसकी धारणाएं सही नहीं हैं, मान्यताएं सही नहीं हैं, वह कुछ करेगा ही नहीं। बहुत लोग ऐसे होते हैं, जो बीमार तो हैं पर अपने आपको स्वस्थ मान रहे हैं। अपनी बीमारी का उन्हें अहसास नहीं हो रहा है। आवश्यकता है-दृष्टिकोण को इतना सहज और सरल बनाया जाए, इतना सम्यक् बनाया जाए, जिससे कम से कम यह अनुभव हो कि हमारे अन्दर ये-ये बीमारियां हैं। अपनी बीमारी का अहसास बराबर बना रहे। यह एक निदान है। इससे पता चलता है कि मिथ्या मान्यता के कारण कितनी बीमारियां पलती हैं और मुझे कौन-सी बीमारी है ।
बीमारी का दूसरा स्रोत है-अविरति । अध्यात्म का एक सूत्र हैजो पर्याय है, वह अस्थिर है, अनित्य है। तात्त्विकदृष्टि से भी यह सही है और व्यवहार की दृष्टि से भी यह सही है । तात्त्विक दृष्टि से हम यह मानते हैं कि कोई पर्याय दीर्घकालीन हो सकता है, दस, बीस या पचास वर्ष चल सकता है किन्तु कोई भी पर्याय शाश्वत नहीं हो सकता। व्यवहार की दृष्टि से देख रहे हैं कि कोई भी पीढ़ी शाश्वत नहीं है। १०० वर्ष पहले की पीढ़ी आज मुश्किल से कहीं खोजने पर मिलेगी। सारी समाप्त है । इस अवस्था में अविरति के प्रति हमारा दर्शन बदल जाता है ।
अविरति है आकांक्षा। पदार्थ के प्रति आकांक्षा, व्यक्ति के प्रति आकांक्षा और वस्तु के प्रति आकांक्षा। एक आकांक्षा है, जो निरन्तर व्यक्त होती रहती है। उसका निदान हो सकता है, आत्म-निरीक्षण के द्वारा पता लग सकता है कि मुझ में कौन-सी अविरति का रूप ज्यादा प्रगट हो रहा है, कौन सी इच्छा ज्यादा व्यक्त हो रही है । सही निदान का उपक्रम : आत्म-निरीक्षण
यह आध्यात्मिक रोग का सही निदान है, आन्तरिक रोग का सही निदान है । अपनी अविरति का पता लगा लेना और अपने भीतर से उठने वाली इस रागात्मक या रागजनित प्रवृत्ति का पता लगा लेना-बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य है। अस्वास्थ्य में बहुत तारतम्य होता है । बीमारी एक प्रकार की
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