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________________ ७ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ तुलसी के सामने बातचीत कर नहीं सकते थे। वे प्रयोजनवश जब दूसरे स्थान में जाते तब हम बातचीत करने बैठ जाते। उनके आने का पता चलता तब फिर सब अपना पाठ कंठस्थ करने लग जाते। कभी पता नहीं चलता तो उलाहना मिलता। कभी-कभी हम एक साधु को सीढियों के पास बिठा देते। वह हमें मुनि तुलसी के आने की सूचना देता और हम सब अपने अध्ययन में लग जाते। यदि हमारे मन में उनके प्रति प्रीति नहीं होती तो हम उलाहना के भय से भी मुक्त हो जाते। जो केवल डरता है, वह ढीठ बन जाता है। डर के पीछे भी एक बन्धन-सूत्र होता है और वह है प्रीति। छापर की घटना है। एक दिन मुनिवर ने मुझे कहा-आज तुम्हें 'विगय' नहीं खानी है। यह एक भूल का प्रायश्चित्त था और मेरे जीवन में ऐसे प्रायश्चित्त का यह पहला ही अवसर था। भोजन का समय हुआ। मुनि श्री चम्पालालजी, मुनिवर और मैं-तीनों एक साथ भोजन करते। गोचरी में आम का रस आया। 'मैं नहीं खाऊं और वे खाएं'-यह उन्हें अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कहा- 'तुम खाओ।' मैंने कहा--'नहीं खाऊंगा। आपने पहले कहा था तुम्हें विगय नहीं खानी है तो अब मैं कैसे खाऊं? मैं मेरी बात पर अड़ गया। हमारी भोजन की मंडली बड़ी थी। मुनिश्री मगनलालजी की सन्निधि में लगभग बीस-पचीस साधु एक मंडली में भोजन करते थे। उन सबके बीच कोई बातचीत नहीं की जा सकती। मुनिवर ने कुछ शब्दों के संकेतों से मुझे विवश कर दिया और मैं अपने बालहठ को छोड़ने के लिए तैयार हो गया। किशोरावस्था की समस्या एक किशोर के विकास में सहयोगी बनना बहुत कठिन बात है। उसके मन को तोड़कर चलने वाला भी उसका सहयोगी नहीं बन सकता और सब कुछ उसके मनचाहा करने वाला भी उसका सहयोगी नहीं हो सकता। सहयोगी वह हो सकता है, जो सब कुछ मनचाहा भी न करे और सब कुछ अनचाहा भी न करे, दोनों के बीच संतुलन स्थापित कर सके। अध्ययन में मन कम लगता। हमने (मैंने तथा मनि बुद्धमल्लजी ने) अभिधान चिंतामणि को कंठस्थ करना शुरू किया। बड़ी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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