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________________ अतीत का अनावरण ६६ अधूरा सच होता है, पूरा सच नहीं होता। मैं मुनि बनने और मुनि तुलसी की छत्रछाया में नयी जीवन-यात्रा चलाने को एक अज्ञात की प्रेरणा मानता हूं। ज्ञात जगत् में इसका समाधानकारक उत्तर मुझे उपलब्ध नहीं होगा। अध्ययन मेरे अध्ययन का प्रारंभ दशवैकालिक से हुआ। वह एक जैन आगम है। भाषा उसकी प्राकृत है। उसमें मुनि की जीवन-यात्रा सांगोपांग निरूपित है। मेरा अध्ययन बहुत मंथर गति से चला। पूरे दिन में उसके दो-तीन श्लोक कंठस्थ कर पाता था। इस मंथर गति से मुनि तुलसी भी प्रसन्न नहीं थे और पूज्य कालूगणी भी प्रसन्न नहीं थे। वे चाहते थे-मैं त्वरित गति से आगे बढूं। कुछ दिनों तक मैं उनकी चाह को पूरा नहीं कर सका। संस्कृत और प्राकृत का कभी नाम भी नहीं सुना था। अपरिचित से परिचित होने में प्रारंभिक कठिनाई होती है। मैंने भी उस कठिनाई का सामना किया। थोड़े दिनों बाद वह कठिनाई दूर हो गई। मेरी गति तेज हुई और मैं प्रतिदिन आठ-दस श्लोक कंठस्थ करने लगा। अब सब प्रसन्न थे। भय और प्रीति मैंने अनुभव किया कि मैं उपालंभ और साधुवाद, भय और प्रेम-दोनों का मिश्रित जीवन जी रहा हूं। मुनि तुलसी प्रमाद होने पर उलाहना भी बहुत देते और सही कार्य करने पर साधुवाद भी देते। मेरे प्रति उनके अन्तःकरण में आकर्षण भी था और वे अनुशासनात्मक भय भी बनाए रखते थे। नीति का वचन है-भय के बिना प्रीति नहीं होती। मेरा अनुभव यह है कि प्रीति के बिना भय नहीं होता। दोनों सचाइयां अधूरी हैं, पर दोनों में सत्यांश अवश्य है। पूज्य कालूगणीजी जोधपुर चातुर्मास कर रहे थे। उस समय मुनि तुलसी की पूरी पाठशाला चल रही थी। उसमें आठ-दस साधु पढ़ रहे थे। अनुशासन कठोर था। केवल अध्ययन। परस्पर बातचीत करने के लिए कोई समय नहीं। हम पढ़ते-पढ़ते थक जाते। मन होता परस्पर मिलें और बातचीत करें। मुनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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