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समाज अध्यात्म से अनुप्राणित हो ५५ अनुभव होता ही नहीं। दूसरी बात-मुझे गुरुदेव का साक्षात् सान्निध्य उपलब्ध है, इसलिए भी मैं अपने आप में बहुत हल्का हूं।
बाह्य व्यक्तित्व के संदर्भ में मैं अपने आप में और वातावरण में भी एक परिवर्तन देख रहा हूं। इन दिनों मुझे एक चिंतन बार-बार आन्दोलित कर रहा है कि गुरुदेव ने मुझे बड़ा दायित्व सौंपा और समूचे संघ ने उसके प्रति इतना उल्लास व आनंद प्रदर्शित किया। केवल तेरापंथ समाज में ही नहीं, व्यापक रूप से मेरे प्रति जो आकांक्षाएं संजोई जा रही हैं, उससे मेरा दायित्व और व्यापक हो जाता है। उन सब आकांक्षाओं की पूर्ति मैं करूं, यही विचार मुझे बार-बार उत्प्रेरित करता रहता है। . क्या आपकी साधना और साहित्य-लेखन में अवरोध नहीं आएगा? - यह निर्णय यदि पांच-दस साल पहले होता तो मेरी साधना और
लेखन-दोनों में अन्तर आता। किन्तु यह काम एक अवधि के बाद हुआ, इसलिए मेरे सामने कठिनाई या अवरोध जैसी कोई स्थिति नहीं है। क्योंकि साधना की एक सीमा में अतिक्रान्त कर चुका हूं और लेखन को भी अब वक्तृत्व में बदल चुका हूं। आपकी रुचि प्रशासन है या ध्यान? मेरी काम करने की पद्धति यह रही है कि या तो मैं कोई काम करूं नहीं, करूं तो पूरी रुचि के साथ करूं। अस्वीकार या पूरी तन्यमता इन दोनों मार्गों में से एक मार्ग का निर्धारण कर मैं चला हं। अतः प्रशासन को भी अपनी रुचि का अंग बनाकर ही चलूंगा। रुचि-निर्माण के स्थान पर रुचि के अनुरूप काम हाथ में लेने का प्रश्न आता तो मैं इस संबंध में कुछ निवेदन भी करता, पर ऐसा अवकाश ही मुझे नहीं मिला। दूसरी बात यह है कि दूसरों के सामने किसी भी काम के स्वीकार या अस्वीकार में मैं पूरी स्वतंत्रता का उपयोग करता हूं किन्तु गुरुदेव का जो आदेश मिल जाता है, उसके लिए सर्वथा अस्वीकार की बात मेरे लिए बहुत कठिन हो जाती है। जिस समय गुरुदेव ने मुझे अपने सामने खड़ा होने का निर्देश दिया, मैं एकबारगी स्तब्ध रह गया। मुझे लगा--मैं कोई स्वप्न देख रहा हूं या यथार्थ के धरातल पर खड़ा हूं।
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