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४६ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ मानता हूं कि विश्वास मुझ पर हमेशा बना रहा है और उसका सबसे बड़ा साक्षी मैं स्वयं हूं कि मुझ पर कितना विश्वास रहा। किन्तु उस विश्वास को गुरुदेव ने समूचे संघ के समक्ष जिस प्रकार दोहराया और मुझे उस विश्वास से जितना भारी बनाया, उस विश्वास की पुनरावृत्ति के साथ-साथ मैं अपनी श्रद्धा की पुनरावृत्ति करना चाहता हूं। मेरे लिए सबसे बड़ा संबल पूज्य गुरुदेव का इंगित, निर्देश और आदेश ही होगा। उसी के अनुसार मेरे जीवन का समूचा क्रम चलेगा। गुरुदेव का कर्तृत्व मैं नन्हा-सा बालक था, छोटे-से गांव में जन्म हुआ था। भोला-भाला था। कुछ पढ़ना-लिखना नहीं जानता था। किसने कल्पना की थी कि उसके प्रति हमारा समाज, भारतीय समाज, प्रबुद्ध समाज किन-किन संज्ञाओं से अपनी भावना प्रकट करेगा। कोई कल्पना नहीं कर सकता था। मैं सारी बातें दोहराऊं तो लग सकता है कि गर्वोक्ति कर रहा हूं। मैं नहीं चाहता कि गर्वोक्ति करूं। किन्तु एक-दो बातें इसलिए कहना चाहता हूं, मेरी गर्वोक्ति नहीं, मैं उस कलाकार की कुशल साधना, कार्य-पद्धति का एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूं कि यदि एक कुशल भाग्य-निर्माता मिलता है तो वह किस प्रकार के व्यक्ति को भी कैसे बना सकता है। लोगों ने कहा-गुरुदेव! आपने और भी बहुत कुछ दिया, किन्तु हमें एक विवेकानन्द दिया। पता नहीं, कौन विवेकानन्द है? किन्तु यह गुरुदेव की कर्तृत्वशक्ति का ही एक प्रयोग है। मेरा अपना कुछ भी नहीं है। और भी न जाने कितनी बातें लोगों द्वारा भी कही गईं, जो हमारे संघ से सर्वथा प्रतिकूल चलने वाले और विरोध रखने वाले थे। मैं चाहता हूं कि सारा जो कुछ हो रहा है, उसमें गुरुदेव का कर्तृत्व एवं सृजनशीलता ही बोल रही है। मेरा अपना कुछ भी नहीं है। • जिस महान् निर्माता ने मेरे जीवन का निर्माण किया, जिस कुशल शिल्पी ने मेरे भाग्य की प्रतिमा को गढ़ा, उसके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करूं, बहुत छोटा शब्द है। उस भार को यह कृतज्ञता शब्द उठा नहीं सकता है। और कोई दूसरा शब्द खोजूं तो शायद शब्दकोश में मिलता नहीं है। सबसे अच्छा कोई शब्द हो सकता है तो यह हो सकता
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