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विकास महोत्सव ३७ ६. शिक्षा
जय तुलसी फाउंडेशन ७. जनसंपर्क, प्रसार
तेरापंथ विकास परिषद् ८ इतिहास
जैन विश्व भारती संस्थान
(मान्य विश्वविद्यालय) ६. समीक्षा
प्रत्येक इकाई के एक या उससे अधिक नियोजक हैं। उन नियोजकों का समुदाय ही नियोजन मण्डल के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है। अमृत-संसद भी उस विकास परिषद् का एक अंग है।
पूज्य गुरुदेव ने आचार्य पद का दायित्व संभाला तब तेरापंथ की एक संस्था थी-श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा। इन छह दशकों में प्रवृत्तियों के साथ संस्थाओं का भी विस्तार हुआ है।
उन सबकी प्रवृत्तियां नियोजित हों, कार्य की पुनरावृत्ति न हो, इस दृष्टि से नियोजन के माध्यम की अपेक्षा हुई और उसका माध्यम बना तेरापंथ विकास परिषद् ।
पुरुषार्थ के चार प्रयोजन हैं१. अलब्ध को पाने की इच्छा २. लब्ध की प्रयत्नपूर्वक रक्षा ३. रक्षित का संवर्धन । ४. संवर्द्धित का समुचित नियोजन।
हम असीम विकास की कल्पना को मूल्य नहीं देते। जो विकास मानव की समस्याओं को सुलझाने में सहयोगी न बने, मानवीय अस्तित्व के लिए खतरा बने, वह हमें इष्ट नहीं है। हमारा सीमा और सापेक्षता में विश्वास है। विकासमूलक प्रवृत्तियों के नियोजन का तात्पर्य यही है कि ऊंचाई के साथ गहराई भी बढ़े। छितरा हुआ जल भूमि की आर्द्रता के लिए उपयोगी हो सकता है, किन्तु उससे बिजली पैदा नहीं की जा सकती, उस पर जलपोत भी नहीं चल सकते। थाली में जल है। उसमें चिड़िया नहा सकती है, किन्तु नौका नहीं चल सकती।
तेरापंथ धर्मसंघ हमारे विकास का मूल आधार है। आचार्य भिक्षु ने जो विचार, सिद्धान्त, दृष्टिकोण और अनुशासन दिया, उसकी ऊंचाई और गहराई दोनों बढ़े, यह तेरापंथ विकास परिषद् की केन्द्रीय पीठ है।
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