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३४ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ
और उसके जीवन का श्वासोच्छ्वास बना । मर्यादा महोत्सव का निष्ठापत्र ही तेरापंथ की प्राण-प्रतिष्ठा है ।
जयाचार्य के शासनकाल में साहित्य, कला, अध्ययन, वक्तृत्व, यात्रा, शिष्य-संपदा आदि अनेक क्षेत्रों में विकास के चरण आगे बढ़े, उनके उत्तरवर्ती आचार्य-त्रय ने विकास के चरणों का अनुगमन किया । अष्टम आचार्य कालूगणी ने विकास की गति को और अधिक तेज करने के लिए कुछ अभिनव दिशाएं खोलीं । गति में तीव्रता लाने का दायित्व अपने उत्तराधिकारी को सौंप दिया ।
आचार्य तुलसी का शासन-काल विकास के ऊर्ध्वारोहण का काल है । विकास लक्ष्य-शून्य नहीं होता । लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने का नाम है विकास । लक्ष्य जितना महान् होता है, उतनी ही गति की संभावना रहती है।
• पूज्य गुरुदेव ने लक्ष्य बनाया - साधु-साध्वियों में शिक्षा का विकास होना चाहिए। एक दशक से अधिक समय इस कार्य की संपन्नता में लगा और हमारे पैर मंजिल तक पहुंच गए।
• लक्ष्य बना - धर्म को रूढ़िवाद के कटघरे से निकाल कर उसके सार्वभौम स्वरूप को जनता के सामने प्रस्तुत करना चाहिए । अणुव्रत आन्दोलन का सूत्रपात हुआ । असाम्प्रदायिक धर्म की आचार संहिता ने जनमानस को आन्दोलित कर दिया ।
• लक्ष्य बना - सार्वभौम धर्म की अवधारणा जन-जन तक पहुंचनी चाहिए। अणुव्रत यात्रा का दौर शुरू हुआ। राष्ट्र की आत्मा के साथ
एकात्मकता का वातावरण बना ।
• लक्ष्य बना - जैन विद्या, अनेकांत, अहिंसा और अपरिग्रह का सिद्धान्त साहित्य बनकर जनता तक पहुंचना चाहिए । अनेक लेखनियां अविराम गति से चलने लगीं । विपुल साहित्य के साथ-साथ अनेक पत्र-पत्रिकाएं अस्तित्व में आईं-जैन भारती, प्रेक्षाध्यान, युवादृष्टि, तुलसी प्रज्ञा, अणुव्रत, विज्ञप्ति आदि ।
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• लक्ष्य बना - आध्यात्मिक विकास आवश्यक है । धर्म में उपासना प्रमुख बनी हुई है। उसका विकल्प है - चरित्र का विकास । अणुव्रत आन्दोलन उसकी संपूर्ति कर रहा है । किन्तु नैतिकता को भी सुदृढ़
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