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आवश्यक है संवत्सरी की समस्या का समाधान २१५
आचार्य, मुनि और प्रमुख श्रावक इस विषय में सहमति प्रकट करते हैं कि संवत्सरी एक दिन होनी चाहिए । किन्तु अपनी-अपनी परंपरा की पकड़ को न छोड़ने के कारण एकता की बात अधर में झूल रही है।
वि. सं. २०४२ (१०, ११ फरवरी, १६८६) उदयपुर में आचार्यश्री तुलसी की सन्निधि में संवत्सरी पर्व की एकता के लिए एक संगोष्ठी आयोजित की गई। उसमें दिगम्बर और श्वेताम्बर - सभी परंपराओं के प्रतिनिधि उपस्थित हुए। उसमें संवत्सरी की एकता के लिए प्रभावी वातावरण बना। उस समय लिए गए निर्णय के अनुसार भारत जैन महामण्डल के तत्वावधान में 'अखिल भारतीय जैन एकता समन्वय समिति' गठित की गई । २३ अगस्त, १९८६ को बम्बई में भारत जैन महामण्डल के अधिवेशन का आयोजन था । उस अवसर पर 'जैन एकता समन्वय समिति' द्वारा सर्वानुमति से एक प्रस्ताव स्वीकृत किया गया -
संवत्सरी सम्बन्धी पारित प्रस्ताव
"महापर्व संवत्सरी की आराधना प्रतिवर्ष भाद्रव शुक्ला पंचमी को ही एवं जब कभी माह बढ़े तो प्रथम मांस को मलमास / अधिक मानकर नहीं गिना जाए। इसी प्रकार तिथियों के बढ़ने में भी प्रथम तिथि को मल तिथि मानकर बाद कर दिया जाए। तिथि का निर्णय घड़ियों के आधार पर नहीं, बल्कि सूर्योदय अर्थात् उदया तिथि के अनुसार हो ।
हमारी विनम्र अपील है कि समस्त जैन समाज इस प्रस्ताव को स्वीकार कर एक साथ ही संवत्सरी महापर्व की उपासना करे । माननीय राष्ट्रपतिजी और भारत सरकार से अनुरोध है कि इस दिन को 'क्षमा - अहिंसा दिवस' के रूप में घोषित कर सार्वजनिक अवकाश एवं देश भर में कत्लखाने बन्द करने का आदेश घोषित करें ।”
जैसा विदित हुआ - इस प्रस्ताव को आचार्य श्री तुलसी, श्रमण-संघ के आचार्यश्री आनन्दऋषिजी महाराज तथा कुछ मूर्तिपूजक आचार्यों ने मान्य किया। उसके आधार पर ही संवत्सरी पर्व की आराधना की गई। तीन-चार वर्ष के पश्चात् श्रमण संघ ने 'बम्बई प्रस्ताव' को अमान्य कर दिया । तेरापंथ धर्मसंघ में अभी भी संवत्सरी पर्व की आराधना 'बम्बई प्रस्ताव' के अनुसार हो रही है ।
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