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जैन परम्परा में सेवा का महत्त्व २०७ वैयावडिय का संस्कृत रूप है वैयापृत्य, व्याप्तस्य भाव : वैयापृत्यं अर्थात् जुट जाना, लग जाना।
दूसरे शब्द वैयावच्च का संस्कृत रूप बनता है वैयावृत्यं अर्थात् एक रूप का दूसरे में रूपान्तर होना। सेवा करने वाला रोगी को अपना दूसरा रूप मानें। उसमें आत्मौपम्य या अद्वैत की भावना बनाए, तभी वह सफल सेवक हो सकता है। जहां द्वैध का भाव आता है वहां ग्लानि होने लगती है। जहां ग्लानि होती है वहां सेवा भाव टूट जाता है। उदाहरण के तौर पर इसका स्पष्ट रूप हमने श्री मगनमलजी स्वामी और श्री पन्नालालजी स्वामी में प्रत्यक्ष देखा। ____ भगवान् ने निशीथ सूत्र में सेवा पर बल दिया है। एक साधु बीमार हो। दूसरे साधु को यह ध्यान हो जाए कि इसे सेवा की आवश्यकता है। उस समय वह यदि जी चुराता है तो उसे चौमासी प्रायश्चित्त आता है। ___ ओघनियुक्ति में लिखा है-“सव्वं खलु पड़िवाई, वैयावच्चं अपडिवाइ" स्वाध्याय और स्मरण प्रतिपाती हैं-चले जाते हैं। एक व्यक्ति ने १०० श्लोक याद किये। स्मरण के बिना वे भूले जा सकते हैं, ऐसा भी सम्भव है कि उसे बिलकुल भी याद न रहे। इस प्रकार वे मिट जाते हैं लेकिन सेवा कभी नहीं मिटती। इसीलिए आचार्यों ने बल दिया कि सेवा करो-सेवा करो। ___ गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा-“वैयावच्चेणं भंते जीवे किं जणयइ?" भगवान् ने प्रश्न के उत्तर में कहा- 'वैयावच्चेणं तित्थयर नाम गोत्र कम्मं निबंधइ। वैयावृत्य से तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म बन्धता है। जैन परम्परा में दृश्य पदों में तीर्थंकर का पद सर्वोत्कृष्ट है। तीर्थंकर पद प्राप्त होने के बीस कारण हैं। उनमें कुल, गण और संघ का वैयावृत्य करना भी उसकी प्राप्ति का कारण है। इस प्रकार आगमों और ग्रन्थों में सेवा का महत्त्व बताया गया है, उस पर बल दिया गया है। कथा-साहित्य में सेवा
कथा-साहित्य में भी सेवा का गुण गौरव हमें मिलता है। भरत चक्रवर्ती और बाहुबलि दोनों भाई थे, भगवान् ऋषभदेव के पुत्र थे। भरत
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