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अमृत महोत्सव : अभिनन्दन १५१ पढ़ने में इतना मग्न हो गया कि बिजली कब गई मुझे पता ही नहीं चला। मैं तो पढ़ता ही चला गया।
दुनिया में कुछ आदमी ऐसे होते हैं जो दूसरे की बात को मान लेते हैं और कुछ आदमी ऐसे होते हैं कि नहीं मानने का व्रत रखते हैं। उन्हें मनवाने के लिए संधि-विच्छेद हो जाता है तो फिर जोड़ने के लिए शायद दुनिया में कोई गोंद नहीं मिलता। ऐसा आदमी जो दूसरों को मानकर नहीं चलता, केवल अकेला चलता है, बहुत श्रम किया-यह इस ग्रथ (महाप्रज्ञ : च्यक्तित्व और कृतित्व) को देखने से पता चलता है। जैसे स्नातकजी ने कहा कि यह केवल आशीर्वादों, प्रशंसाओं का पुलिंदा नहीं है, इसके साथ श्रम जुड़ा हुआ है। मित्र परिषद् ने, उसके पूरे सदस्यों ने काफी तन्यमयता के साथ इसमें योग दिया और यह ग्रन्थ बनकर मेरे हाथों में आ गया। मैं मानता हूं कि यह ग्रन्थ जो काफी श्रम से तैयार किया गया ग्रन्थ है, अब यह किसको पहुंचेगा, यह पता नहीं। टैगोर की एक कविता में कहा है-तीर्थयात्रा निकल रही है और लोग सड़क पर आकर नमन करते चले जा रहे हैं। पथ सोचता है कि लोग हमें नमस्कार कर रहे हैं। रथ सोचता है कि हमें नमस्कार कर रहे हैं और मूर्ति सोचती है कि हमें नमस्कार कर रहे हैं और जिसको नमस्कार कर रहे हैं, वह अन्तर्यामी ऊपर बैठा-बैठा हंस रहा है। यह ग्रन्थ मुझे भेंट किया गया-मैं समझू कि मेरा अभिनन्दन, आप समझें कि लाडनूं की धरती का अभिनन्दन, जैन विश्व भारती वाले समझें कि जैन विश्व भारती के प्रांगण में अभिनन्दन, साधु-साध्वियां समझें कि युवाचार्य का अभिनन्दन
और वह अन्तर्यामी संगरूर* में बैठा-बैठा हंस रहा है कि किसका अभिनन्दन हो रहा है। ___अभिनन्दन उसका होता है, जो जीवन में एक लौ प्रज्वलित कर देता है। मुझे परम हर्ष है इस बात का कि प्रज्ञा के साथ कोई व्यक्ति जुड़े। मैं मानता हूं कि जब तक हमारे बन्धन नहीं टूटते-सांप्रदायिकता के, जातीयता के, राष्ट्रीयता का भी, जिस अर्थ में आज राष्ट्रवाद चल रहा है और मनुष्य या स्त्री होने का भी-सारे बंधन जब तक नहीं टूटते तब * गुरुदेव श्री तुलसी उस समय संगरूर में विराज रहे थे।
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