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१५० अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ है तो वह अध्यात्म के द्वारा जागती है, पढ़ने से नही जागती। ठीक कहा गया कि हर आदमी महाप्रज्ञ बन सकता है।
गुरुदेव स्वयं कहते हैं-ये बहुत समर्पित हैं। मैं आपको सच बतलाऊं कि मैं किसी भी व्यक्ति के प्रति समर्पित नहीं हूं। न महावीर के प्रति, न आचार्य भिक्षु के प्रति और न आचार्य तुलसी के प्रति। मुझसे पूछा कि आप किसको मानते हैं। मैंने कहा-मैं अपने आपको. मानता हूं, किसी को नहीं मानता। क्या आप भगवान् महावीर को नहीं मानते? नहीं मानता। आचार्य तुलसी को नहीं मानते? बिल्कुल नहीं मानता। बड़ी अटपटी बात है, कहीं अनर्थ न हो जाए। बहुत खतरनाक बात है। बड़े आश्चर्य में पड़े कि यह क्या बात है! मैंने कहा-भगवान् महावीर को मैं मानता हूं, इसका निर्णय मैंने किया या भगवान् महावीर ने किया? आचार्य भिक्षु को मैं मानता हूं। इसका निर्णय मैंने किया या आचार्य भिक्षु ने किया। मैं आचार्य तुलसी को मानता हूं इसका निर्णय मैंने किया या आचार्य तुलसी ने किया। वे निर्णय करते तो सारी दुनिया को ही अपना शिष्य बना लेते। यह मेरा अपना निर्णय है कि मैं आचार्य तुलसी को अपना गुरु मानता हूं तो वास्तव में गुरु मैं रहा या आचार्य तुलसी रहे।
हर व्यक्ति का अपना सत्य होता है, अपना निर्णय होता है। उसे अपनी प्रज्ञा को जगाना होता है। मेरे जैसे एक बिल्कुल अबोध बच्चे को इस प्रकार गरुदेव ने एक सत्य के साथ जोड़ा। इसे सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूं। और-और मुझे बहुत देते तो कोई संतोष नहीं होता। गुरुदेव ने स्वयं कहा-मैं तुम्हें और कोई बड़ी उपाधि नहीं दे रहा हूं किन्तु महाप्रज्ञ संबोधन दे रहा हूं, यह उपाधि होकर भी निरुपाधि की दिशा में ले जाएगी। ___ आज आप लोगों ने अभिनन्दन किया। किसका किया यह तो पता नहीं। हमारे साहित्यकार बन्धु-विजयेन्द्रजी स्नातक, भवानीप्रसादजी मिश्र, इन दोनों ने किया, चतुर्वेदीजी बैठे हैं, करने वाले हैं। श्री कन्हैयालाल फूलफगर से अपनी सारी शक्ति लगा दी। दिन-रात की सीमा का भी पता नहीं चला। विद्यार्थी बैठा था, पढ़ता गया, पढ़ता गया, समय हो गया। पिता के पास गया, जाकर बोला-पिताजी ! आज तो
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