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२५. आचार्य तुलसी की आलोक रेखाएं
आचार्य तुलसी भारतीय आत्मा के उज्ज्वल प्रतीक हैं। वे जैन मुनि हैं। निवृत्ति की धारा के महान् समर्थक हैं। फिर भी वे न अकर्मण्य हैं और न निराशावदी। उनकी कर्मण्यता बहुत आश्चर्य में डाल देती है। वे अनेक बार अपने खाने और सोने का समय भी दूसरों के लिए अर्पित कर देते हैं। उनका आशावाद बहुत बार असफलता को भी सफलता में परिणत कर देता है। उनकी भाषा में– 'अन्तरतम की हित-साधना की प्रवृत्ति का नाम ही निवृत्ति है।' संन्यास को वे पलायन नहीं किन्तु आन्तरिक चैतन्य के विकास के लिए मौन व एकान्त परिस्थिति मात्र मानते हैं। अणुव्रत आन्दोलन का लक्ष्य उनका कार्यक्षेत्र न केवल वैयक्तिक है और न केवल सामाजिक। वे सापेक्षवाद में विश्वास करते हैं। इसलिए व्यक्ति और समाज को न सर्वथा भिन्न मानते हैं और न सर्वथा अभिन्न, किन्तु भिन्नाभिन्न मानते हैं। उन्होंने व्यक्ति और समाज-दोनों की शुद्धि के लिए अणुव्रत
आन्दोलन का प्रवर्तन किया। स्वतंत्र भारत के शैशव में इस आन्दोलन ने चरित्र-विकास की जो प्रेरणाएं दी हैं, जन-मानस को नैतिक आधार दिया है और बढ़ती हुई अनैतिकता के विरोध में जो क्रान्ति की है, वह स्वयं में एक महान् इतिहास है।
गुरुदेव ने अणुव्रत आन्दोलन के माध्यम से जीवन के सभी क्षेत्रों का स्पर्श किया है। वे भौतिक विकास की उपेक्षा सामाजिक प्राणी के लिए संभव नहीं मानते। उन्होंने कहा- “भौतिक विकास के साथ नैतिक विकास का संतुलन बना रहे। आज जो भय, संदेह और अशांति
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