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________________ १२८ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ नियन्त्रित हैं, उन्हें लगता है कि हम स्वाधीन हैं। अपना अनुशासन है और अपना नियन्त्रण है। आचार्य भिक्षु ने कहा-सब शिष्य एक ही आचार्य के होने चाहिए, साधुओं को अपने-अपने शिष्य नहीं बनाने चाहिए। साधुओं ने कहा-“यही होना चाहिए।" आचार्य भिक्षु ने कहा-जीवन की सारी चर्या आचार्य के आदेशानुसार ही चलनी चाहिए। साधुओं ने कहा-ऐसा ही होना चाहिए। प्रश्न होता है, यह ध्वनि की प्रतिध्वनि क्यों? उत्तर बहुत स्पष्ट है। अहिंसा और क्या है? एक में, दो में, तीन में, सबमें कोई विषमता न रहे, समत्व की अनुभूति हो जाए, यही तो अहिंसा है। एक चलाए और सब चलें--यह व्यवहार है। सचाई यह है कि चलने वाले में चलने का भाव हो और चलने वाले चलाने वाले को अविभिन्न मानें। अनभूति में जो सहयोग होता है वह हृदय को विभक्त नहीं होने देता। यह आवश्यक नहीं कि जो पैर करे वही मस्तिष्क करे और यह संभव नहीं कि जो मस्तिष्क करे वही पैर करे। पर यह आवश्यक है कि पैर और मस्तिष्क की अनुभूति एक हो। तेरापंथ इसलिए आश्चर्य है कि उसमें संवेदना का धागा अखण्ड है। संविभाग की भावना नई नहीं है। यह बहुत पुराना शब्द है। भगवान् महावीर ने कहा-जो मुनि असंविभागी है, वह मोक्ष नहीं पायेगा। आचार्य भिक्षु ने इस सूत्र को संघ व्यवस्था का आधार बनाया। वैसे तो साधु अपरिग्रह के व्रती होते हैं. पर जीवन तो आखिर जीवन है। जो जीता है वह खाता-पीता भी है। जो समाज के बीच रहता है वह पहनता-ओढ़ता भी है। जो है वह कहीं रहता भी है। खाने को जो मिले वह सब बांट-बांट कर खाएं। कपड़ा जो मिले उसे बांट-बांट कर पहनें। स्थान जो मिले उसमें बांट-बांट बैठे, सोएं। बांटने की बात इतनी प्रधान बन गई कि बिना बांटे जिसने एक पाव पानी पिया, वह संघ से बहिष्कृत कर दिया गया। जो बिना बांटे अकेला अधिक लेना चाहे वह अपने साधर्मिकों की चोरी करता है। उसमें अचौर्य की भावना के साथ-साथ संविभाग रम गया। तेरापंथ इसीलिए आश्चर्य है उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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