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२०. बाहुबलि : स्वतंत्र चेतना का हस्ताक्षर
श्रवणबेलगोला में भगवान् बाहुबलि की विशाल प्रतिमा एक प्रश्नचिह्न है
और एक अनुत्तरित प्रश्न का समाधान भी है। क्या मनुष्य शरीर इतना विशाल हो सकता है? हजारों-हजारों वर्ष पहले कोई सौर मण्डल का ऐसा प्रभाव रहा होगा, मनुष्य ने विशाल , शरीर पाया होगा। उसकी पुष्टि में अभी कोई तर्क प्रस्तुत नहीं करना है। वर्तमान की समस्या का वर्तमान के संदर्भ में समाधान खोजना है। कभी-कभी बाहरी उपकरण मनुष्य की अंतरात्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान् बाहुबलि की विशाल प्रतिमा का रहस्य उनकी अंतरात्मा की विशालता में खोजा जा सकता है। स्वाभिमान, स्वतंत्रता और त्याग की विशालता में बाहुबलि असाधारण हैं। यह विशाल प्रतिमा उसी विशाल व्यक्तित्व का एक प्राणवान् दर्शन है।
भरत दिग्विजय कर अपनी राजधानी अयोध्या में पहुंचा। सेनापति सुषेण ने कहा-"चक्र आयुधशाला में प्रवेश नहीं कर रहा है।" भरत ने जिज्ञासा के स्वर में कहा- “क्या कोई राजा अभी बचा है, जो अयोध्या के अनुशासन को शिरोधार्य न करे?" सेनापति बोला--"कोई बचा है इसीलिए चक्र आयुधशाला में प्रवेश नहीं कर रहा है।” “कौन बचा है?" अपनी स्मृति पर दबाव डालते हुए भरत ने कहा। सेनापति फिर भी मौन रहा। भरत को उसका मौन अच्छा नहीं लगा। उसने झुंझलाहट के साथ कहा-“लगता है, तुमसे कुछ छिपा हुआ नहीं है। तुम सकुचा रहे हो। मौन भंग नहीं कर रहे हो।" सेनापति बोला-“क्या कहूं? समस्या घर की है। पराए सब राजे जीत लिये गए हैं। कोई बाकी बचा है तो वह अपना ही है।" "क्या बाहुबलि बचा है?" भरत के मुख से अचानक यह नाम निकल गया। "वह मेरा भाई है। फिर वह कैसे अवरोध पैदा करेगा
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