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११६ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ है, चाहे माओ का हो, चाहे कन्फ्युशियस का हो, उसके सामने मेरा सिर श्रद्धा से झुक जाता है। महावीर के प्रति इसलिए मेरा सिर नहीं झुकता कि मैंने उनकी परम्परा को स्वीकार किया है। परम्परा को स्वीकार करना एक बात है किन्तु विचारों के पीछे लग जाना यह दूसरी बात है। मैंने देखा, महावीर ने जो कुछ भी किया, यदि सचमुच हम भारतीय चिंतन का विश्लेषण करें तो कुछ ऐसी मौलिकता पाएंगे कि जो विरल, अपने आपमें अद्वितीय और अनुपम होगी। __ कुछ दिन पहले मैं एक ग्रन्थ लिखने के प्रसंग में कुछ बातें देख रहा था। बातें गहरी नहीं थीं और ऐसी भी नहीं थीं कि वे बातें मैंने पहली बार देखी हों। न जाने कितनी बार ग्रन्थ का पारायण किया था। ग्रन्थ भी कोई दार्शनिक गहराई का नहीं था। साधारण था-श्रावकप्रतिक्रमण। मैं देख रहा था। देखते-देखते ध्यान गया और कुछ बातें ध्यान में आयीं। मैंने उसी समय गुरुदेव के सामने रखीं। महावीर ने कहा-'अच्छा हो, हम अपना संयम अपने आप करें।'
अब आप देखिए। कुछ ही वर्ष पूर्व स्वर्ण का नियन्त्रण हुआ था। आज भूमि का नियन्त्रण हो रहा है। शहरी संपत्ति का नियन्त्रण हो रहा है। अनाज का संग्रह करने वालों पर नियन्त्रण हो रहा है और पूंजी पर भी नियन्त्रण हो रहा है। सारे नियन्त्रण सरकार लगा रही है। आज आपको भगवान् महावीर की वाणी याद होती तो शायद सरकार को यह नियन्त्रण लगाने की आवश्यकता न पड़ती। आप श्रावक प्रतिक्रमण के पांच व्रतों और अतिचार को देखिए। आज सरकार क्या कह रही है और पचीस सौ वर्ष पूर्व भगवान महावीर क्या कर रहे हैं? वे कह रहे हैं कि धन की सीमा करो-इतने से अधिक धन का संग्रह नहीं करूंगा, इतने से ज्यादा अनाज का संग्रह नहीं करूंगा।।
नियन्त्रण था पर उसको भुला दिया। इसीलिए सरकार को बाध्य होकर नियन्त्रण लाना पड़ रहा है। पशुओं का संग्रह नहीं करूंगा : प्रमाण से ज्यादा घरेलू उपकरणों का संग्रह नहीं करूंगा। ये थे भगवान् महावीर के अपरिग्रह, या इच्छा-परिमाण व्रत के पांच उपदेश। आज हम धर्म को शक्ति के रूप में स्वीकार करते हैं। धर्म आध्यात्मिक है, धर्म व्यक्तिगत है किन्तु भगवान् महावीर ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने जहां
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