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१६. दीक्षा का प्रयोजन
आज मेरा दीक्षा दिवस है । आज मैं प्रव्रज्या के ४६ वर्ष पूरे कर पचासवें वर्ष में प्रवेश कर रहा हूं। मैं अल्प वय में दीक्षित हुआ । मैंने दीक्षा क्यों ली - यह मैं बता नहीं सकता । दीक्षा ली, यह तथ्य है । क्यों ली ? यह प्रश्न है। आज मैं कह सकता हूं कि ग्रहण करने के तीन कारण हैं
अज्ञातं ज्ञातुमिच्छामि, कर्तुमनावृतम् । अभूतो हि बुभूषामि, दीक्षा सेयं ममाहती ॥
गूढ
मैं अज्ञात को ज्ञात करना चाहता था । मैं आवृत को अनावृत करना चाहता था, परदे को हटाना चाहता था और जो नहीं था, वह होना
चाहता था ।
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दीक्षा ग्रहण करने के ये तीन कारण हैं । ये ही तीन कारण होने चाहिए । यदि अज्ञात अज्ञात ही बना रहे, यदि गूढ गूढ ही बना रहे और यदि जो जहां है, जिस रेखा पर खड़ा है, वहीं जिन्दगी भर खड़ा रहे तो दीक्षा का कोई अर्थ नहीं होता। मैंने तीनों बातों को यत्- किंचित् कार्यरूप में परिणत किया है। मैंने अज्ञात को ज्ञात, आवृत को अनावृत और न होने को होना संभव किया है । यही दीक्षा का प्रयोजन है ।
मैं अपनी माता के साथ दीक्षित हुआ और दीक्षा से आते ही पूज्य कालूगणी ने मुझे कहा- जाओ मुनि तुलसी की देखरेख में सीखो - पढ़ो।
मेरा रहन-सहन, शिक्षा-दीक्षा मुनि तुलसी के पास हुई। उनके अनुशासन में रहना कोई सरल बात नहीं थी । वे बड़े कठोर अनुशासक हैं। आज वे मुझे कहते हैं - तुम बहुत कोमल हो। मैं यह नहीं कह सकता कि आप बहुत
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