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अभिवंदना किसकी? १०३ लहलहाता था। इतना प्रेम, इतना वात्सल्य कि आप लोगों को क्या बताऊं?
मुझे दीक्षा लिये छह-सात वर्ष हो गए। पूज्य कालूगणी का स्वर्गवास हुआ और मुनि तुलसी आचार्य तुलसी बन गए। सबको अच्छा लगा किन्तु मुझे उतना अच्छा नहीं लगा। मैंने सोचा कि यह क्या? जीवन में व्यवधान खड़ा हो गया। भोजन सदैव साथ में करते थे। कई दिनों तक मैं भोजन नहीं कर सका। जाता, पूज्य गुरुदेव पूछते-भोजन कर आए? मैं कहता-नहीं किया, तो कहते अब तो अलग भोजन करना ही होगा। मेरे साथ कैसे करोगे? कभी मुनि सुखलालजी को भेजते, कभी भाईजी महाराज को भेजते कि इसको भोजन करा आओ। मुझे यह पता नहीं कि कब चोलपट्टा साध्वियों को सीने के लिए देना है, कब पछेवड़ी देना है, कब ओढ़ना है, कब पहनना है। मुझे कोई चिन्ता नहीं। बस, सब कुछ ,यंत्रवत् चल रहा था। बस, आप जो कुछ कहते, वही करना है। तब भगवान् जागता है मुझे एक घटना याद आ रही है-द्वितीय महायुद्ध चल रहा था। लंदन की एक महिला रात को प्रार्थना करके सो जाती और निश्चित नींद लेती। पड़ोसी कहते-हम लोग तो जागते हैं, डरते हैं, तुम निश्चिन्त सो जाती हो। महिला कहती-मुझे तो कोई चिन्ता नहीं। लोगों ने पूछा-चिन्ता क्यों नहीं? क्या रहस्य है इसका? महिला ने कहा-जब सोती हूं, तब भगवान से प्रार्थना करके सोती हूं कि प्रभो! मेरी रक्षा करना। जब मैं सोती हूं तब भगवान् जागता है। दोनों के जागने की क्या जरूरत है? वह भी जागे और मैं भी जागू? इसकी क्या जरूरत है? सचमुच मेरा भी बचपन का जीवन ऐसे ही बीता। मैंने सोचा, पूज्य कालूगणी और मुनि तुलसी चिन्ता करने वाले हैं तो यह भार मैं क्या 'ढोऊं? निश्चिंत जीवन भला जिसके लिए परमात्मा स्वयं जागता हो तो दोनों को कभी एक साथ जागने की जरूरत नहीं। लोग समझते हैं कि मैं भोला था, सीधा
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