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१५. अभिवंदना किसकी?
रथयात्रा निकल रही थी। लोग अष्टांग दण्डवत् कर रहे थे। सड़क पर नारों से अष्टांग वंदनाएं हो रही थीं। जो रथ था, जिसमें मूर्ति थी, उसने सोचा, मैं देवता हूं और सब लोग मुझे वंदना कर रहे हैं। लोग पथ पर लेट रहे थे। वंदना कर रहे थे, गिर रहे थे तो रथ ने सोचा, मैं देवता हूं, लोग मुझे वंदना कर रहे हैं और जो भीतर मूर्ति थी, वह सोच रही थी कि लोग मुझे वंदना कर रहे हैं। सबसे ऊपर बैठा अन्तर्यामी हंस रहा था।
अभी अभिवंदना हो रही थी। कोई कुछ रहा था, कोई कुछ कह रहा था। शायद यह स्टेज का पत्थर सोचता होगा कि मेरी अभिवंदना हो रही है। यह कंबल सोचता होगा कि मेरी अभिवंदना हो रही है। ये कपड़े सोचते होंगे कि हमारी अभिवंदना हो रही है और अन्तर्यामी पूज्य गुरुदेव ऊपर मंच पर बैठा-बैठा हंस रहा है। किसकी अभिवंदना!
मैं मानता हूं कि यदि कोई प्रशंसा करे, अभिवंदना करे तो शायद मुझ तक पहुंचता ही नहीं। कोई भी आदमी घर में प्रवेश करता है। अन्दर आएगा तो द्वार से जाएगा। पहुंचना तो. वहां तक है, जहां अन्तर्यामी बैठा है। शरीर प्रेक्षा के द्वारा उस अन्तर्यामी तक पहुंचना होगा। मैंने मान लिया कि जिस अन्तर्यामी तक पहुंचना है, लोग सीधे नहीं पहुंच पाते हैं तो पहले दरवाजे में घुसकर ही भीतर पहुंच पाएंगे। अच्छा है कि दरवाजा मैं ही बन जाऊं। मुझे भला क्या आपत्ति होगी? जहां तक पहुंचना है, वहां पहुंचेंगे। मैं दरवाजा बन सकता हूं। उसे मिलता हैं सत्य एक शिष्य गुरु के पास आया और बोला-गुरुदेव! जीवन की एक
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