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६८ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ है, तर्क से नहीं समझा जाता और धर्म वह तत्त्व ही नहीं, जो तर्क से समझा जा सके। इन्द्रियों का स्तर, मन का स्तर, बुद्धि का स्तर-ये सब नीचे रह जाते हैं। धर्म का स्रोत है, इन सबसे परे। यानी इन्द्रिय, मन
और बुद्धि से परे। जो बुद्धि से भी परे का स्तर है, भाव चेतना का स्तर है, वहां धर्म का साक्षात्कार होता है। प्रत्यक्ष अनुभव की आकांक्षा मेरे मन का एक स्वप्न था। बहुत पुराना स्वप्न। मैंने गुरुदेव से एक प्रार्थना की थी। बहुत पहले की थी। अभी मैं संघीय सेवाओं में लगा हूं। जब मैं पैंतालीस वर्ष का होऊ, तब मुझे इन सबसे मुक्त कर दिया जाए और मैं केवल प्रज्ञा की साधना करना चाहता हूं, साक्षात्कार के लिए समर्पित होना चाहता हूं। मैं यह नहीं चाहता कि हम सब परोक्ष ज्ञानी ही रहें और यह दोहराते रहें कि शास्त्रों में ऐसा लिखा है, शास्त्रों में वैसा लिखा है। किन्तु आज इस बात की अपेक्षा है कि हम स्वयं जानें और यह कह सकें कि हमने इसका अनुभव किया है और अपने अनुभव के आधार पर यह बात कह रहा हूं। केवल परोक्ष की दहाइयां न दी जाएं, शास्त्र की रटन ही न चले किन्तु स्वयं अनुभव करें और जो अनुभवकर्ता थे, उनके साथ साक्षात् संपर्क स्थापित करें। मैंने प्रार्थना की। मेरा ४५वां वर्ष कहीं चला गया। पता नहीं कब चला गया। मैंने एक पुस्तक लिखी--मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति। उसमें सबसे पहले मैंने अपना परिचय दिया कि मैं मुनि हूं और वह मुनि नहीं, जो शास्त्रों के साथ-साथ ही चलूं। शास्त्रों को बहुत महत्त्व देता हूं। आप लोग यह न समझें कि शास्त्रों का मूल्य नहीं मानता हूं। बहुत मानता हूं किन्तु शास्त्रों की अवज्ञा करना नहीं चाहता। शास्त्र का निर्देश है कि स्वयं जानो। स्वयं सत्य की खोज करो और हम स्वयं सत्य की खोज न करें, केवल परोक्षवादी ही बने रहें तो यह शास्त्र के प्रति बहुत समादर नहीं होगा। लक्ष्य है साक्षात्कार मेरे मन की प्रबल इच्छा है कि मैं स्वयं अनुभव करूं, प्रत्यक्ष द्रष्टा बनूं।
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