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६२ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ
दोनों के विचारों में अद्भुत समानता पायी । अहिंसा मेरा प्रिय विषय बन गया और वर्षों तक मैं इसी विषय पर लिखता रहा और जीवन में प्रयोग भी करता रहा ।
अहिंसा के बीज
आचार्यश्री तुलसी का चातुर्मासिक प्रवास (वि. सं. २०११) बम्बई में हुआ । परमानन्द कापड़िया ने तेरापंथ की अहिंसा विषयक दृष्टि पर एक समीक्षा लिखी । उसमें छिछली आलोचना नहीं थी । आलोचना का स्तर अच्छा था। इससे पूर्व तेरापंथ के अहिंसा विषयक सिद्धान्त की इस स्तर की आलोचना नहीं निकली थी । लेख गुजराती भाषा में था । उसका शीर्षक था - 'अहिंसा की अधूरी समझ ।' आचार्य श्री तुलसी ने वह लेख पढ़ा और मुझे बुलाकर कहा - 'अब तक हमने आलोचना का प्रत्युत्तर नहीं दिया। पहली बार यह स्तर की आलोचना निकली है, जिसमें गाली-गलौज नहीं किन्तु एक चिन्तन है। अब हमें इसका प्रत्युत्तर देना चाहिए | तुम एक लेख लिखो ।' मैंने उस पर ' अहिंसा की सही समझ ' शीर्षक एक लेख लिखा । श्रीचन्दजी रामपुरिया ने कापड़िया का और मेरा - दोनों लेख 'जैन भारती' पत्र में एक साथ छापे । कापड़िया ने 'प्रबुद्ध जीवन' में लिखा- 'मेरे लेख में कहीं-कहीं व्यंग्य भी है, कटूक्तियां भी हैं, किन्तु मुनिश्री नथमलजी ने जो लेख लिखा है, उसमें केवल समीक्षा है, न कोई व्यंग और न कोई कटूक्ति ।' इससे मैं बहुत प्रभावित हुआ । यदि मेरे मन में अहिंसा के बीज अंकुरित नहीं होते तो मैं व्यंग्य और कटूक्ति से शायद नहीं बच पाता ।
यथार्थ की प्रस्तुति
मैं जैन मुनि बना। जैन दर्शन मेरे अध्ययन का विषय बना । फिर भी इस स्वीकृति को मैं अवश्य मानता हूं कि गांधी साहित्य से मुझे जैन धर्म को आधुनिक संदर्भ में पढ़ने की प्रेरणा मिली। मैंने एक पुस्तक लिखी । उसका नाम था - 'आंखें खोलो।' उसके पांच अध्याय थे । उसमें एक अध्याय था - जातिवाद । आचार्यश्री तुलसी ने उसे देखकर कहा - यह पुस्तक बाहर जाएगी तो समाज में इससे बहुत चर्चा होगी। अभी इसे रहने दो। फिर दो क्षण के चिन्तन के बाद कहा- यह वास्तविकता है।
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