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आचार्यस्तुतिः २०६ सातों बार जिज्ञासु होकर बारि-बारि से तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो रहे हैं१. सूर्य-आन्तरिक अन्धकार को नष्ट करने की कला का जिज्ञासु । २. सोम-निष्कलंक सौम्य की कला का जिज्ञासु । ३. मंगल-पक्षपातशून्य त्रास की कला का जिज्ञासु । ४. बुध-बुद्धि का जिज्ञासु । ५. गुरु-अध्यात्म विद्या का जिज्ञासु । ६. शुक्र-पवित्र नीति का जिज्ञासु । ७. शनि-तुच्छता-रहित दमन-कला का जिज्ञासु ।
मतिश्रुतज्ञानयुतस्त्वमोश !, श्रीकेवलज्ञानयुतोऽहमस्मि । त्वं वेत्सि भावान् विविधान् विशिष्टान्,
त्वामेवजानाम्यहमात्मरूपम् ॥१६।। . देव ! आप मति और श्रुत ज्ञान के धनी हैं इसीलिए आप विविध भावोंअनेक शिष्यों को देखते हैं। मैं केवलज्ञान-एक ज्ञान से युक्त हूं, अतः मैं केवल आपको ही देखता हूं।
प्रतिक्षणं त्वां च निरीक्षमाणः, स्म केवलज्ञानयुतो 'भवामि । स्यान्नान्तरायो नियमस्त्वयेति
सिद्धान्तसिद्धः प्रतिपालनीयः ॥१७॥ केवली का ज्ञान अबाधित और निरन्तर होता है। मैं इसीलिए केवलज्ञान से युक्त हूं कि मैं प्रतिक्षण आपको देखता रहता हूं। इसमें कहीं अंतराय न आए इसलिए सिद्धान्त-सिद्ध इस नियम का आपको पालन करना है।
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