________________
आचार्यस्तुतिः २०७
कामदव न आचार्यतुलसी से तुलना करते हुए सोचा-'रति मेरी प्रिया है और इन महामति के भी रति (संयम में रति) प्रिया है। मेरे पांच बाण हैं तो इनके भी महाव्रत रूपी पांच बाण हैं। मेरा धनुष्य पुष्प से निष्पन्न है तो इनका धनुष्य शांति और मृदुता से निष्पन्न है । मैं बुढ़ापे से भयभीत हूं तो ये भी बुढ़ापे से भयभीत हैं । मेरा चिह्न शंवर (मत्स्य) है और इनका चिह्न भी संवर है । मैं शंवर (एक राक्षस) का शत्रु हूं और ये संवर-शरीर के शत्रु हैं। मैं भी महोत्सवहूं और ये भी महोत्सव हैं। हम दोनों विश्व (में सम्पूर्ण प्राणी-जगत् को और ये सम्पूर्ण इन्द्रिय-जगत्) को जीतने के लिए उत्सुक हैं।' इस प्रकार मेरी और इनकी समता है । यह सोचकर मैंने इनको अपना सहायक माना और इन्हें उपद्रुत-पीड़ित नहीं किया। आज ये पूर्ण पराक्रम-युक्त हो गए, अतः ये मेरे वश में नहीं आ सकते । अरे ! ये तो मुझे समूल उखाड़ने के लिए प्रयत्नशील हैं। मैं इन्द्र आदि से भी नहीं ठगा गया किन्तु इन महामना से ठगा गया हूं।
कलावतां स्यात् प्रथमोऽयमर्योस्म्यहं द्वितीयस्त्विति चिन्तयातः । चन्द्रोस्त तन्द्रो भ्रमति ह्य षापि,
क्षीणः पुनस्तत् प्रकटीकरोति ।।६।। चन्द्रमा ने सोचा-'आचार्य तुलसी कलावान् व्यक्तियों में प्रधानरूप से पूजनीय हैं और मेरा स्थान दूसरा है क्योंकि मेरी पूजा द्वितीया को होती है।' उसकी नींद उड़ गई और वह रात को भी इधर-उधर भटकने लगा। वह क्षीण होता है, उपचित होता है। यह क्रम चलता जाता है ।
अन्ये गुणाः स्युस्त्वयि भूरयोऽपि, नयानुगा तत्र ममापि दृष्टि: । स्तोष्येऽहमद्य क्रमयुग्ममेव,
यदास्पदं में मनसे ददाति ॥१०॥ आपमें और-और भी अनेक गुण हैं । मेरी दृष्टि भी अब नीति की अनुगामिनी हो गई है। अब मैं आपके चरण-युगल की ही स्तवना करूंगा क्योंकि वह मेरे मन को आधार दे रहा है।
केचिद् विशालं हृदयं मनन्ति, केचिन् मनः के च लसल्ललाटम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org