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महावीरो वर्द्धमानः २०३
से स्याद्वाद का उत्स प्रवहमान हुआ, वे श्री महावीर सुगति के मार्ग में स्फूर्ति के हेतु बनें ।
यं लोकाः समुपासते शिवधिया कर्मक्षये दक्षिणं, यं ब्रह्म ेति जना भजन्ति सततं चारित्रसम्पादकम् । यं नारायणभावतश्च दधते स्याद्वादपाथोधिगं, विश्वात्मा भगवान् पुनातु सकलान् वीरो जिनेन्द्रो महान् ||४||
कर्मक्षय में निपुण होने के कारण लोग जिसकी शिवरूप में उपासना करते हैं, चारित्र का संपादन करने के कारण लोग ब्रह्मा के रूप में जिसकी सेवा करते हैं और स्याद्वाद-समुद्र का अवगाहन करने के कारण लोग जिसको नारायण के रूप में धारण करते हैं वह विश्वात्मा भगवान् जिनेन्द्र महावीर सबकी रक्षा करे ।
ज्ञातं येन प्रवरमतिना नात्मनो ज्ञानमन्यद्,
दृश्यमन्यत् ।
दृष्टं येनाऽप्रतिहतदृशा नात्मनो स्पृष्टं येनाऽमलकमनसा नात्मनः आत्माद्वैतः फलतु स महान् वर्धमानो नगेशः ॥ ५॥
स्पृश्यमन्यद्,
जिस प्रवरमति वाले महावीर ने आत्म-ज्ञान के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं जाना, जिसने अप्रतिहत दृष्टि से आत्मा के सिवाय दूसरा कोई दृश्य नहीं देखा, जिसने पवित्र मन से आत्मा के अतिरिक्त दूसरा स्पृश्य नहीं माना, वह वर्द्धमानरूपी आत्माद्वैत का महान् वृक्ष सतत फलवान् हो ।
श्रद्धाभूमौ वपतु विमलं बीजमाचारवल्ल्याः, सम्यग्ज्ञानोदकपृषतकैः सिञ्चतु स्त्यानदृष्ट्या एषा मुक्ति: कृषिसुकुशले भारते येन गीता, शश्वद् गेयो भवति भगवान् वर्द्धमानो धृतात्मा || ६ || लोग श्रद्धा की भूमि में आचार की वल्ली का विमल बीज बोएं और उसे सघनदृष्टि से सम्यग् ज्ञानरूपी पानी की बूंदों से सींचें । कृषि प्रधान भारत में जिस व्यक्ति ने इनकी युक्ति का शश्वद् गान किया, वह है धृतात्मा भगवान् वर्द्धमान् । युक्तात्मा ज्ञातपुत्रो जगति मनसः सर्वयोगविमुक्तः, शब्दात्मा व्यक्तरूपः सहजसुषमोऽव्यक्तरूपो निजात्मा ।
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