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१६४ अतुला तुला
स्याद्वादस्ते कथं तहि,
भावी मे हृदयंगमः ।।४।। प्रभो ! मैं भक्त हूं। तुम अदृश्य हो किन्तु मेरे लिए भी यदि दृश्य नहीं बनते हो तो तुम्हारा स्याद्वाद मेरे द्वारा कैसे हृदयंगम होगा ?
अर्पयामि मनोभावं, ग्राह्य विनिमये किमु । हा ! बुद्धोस्मि क्षणेनापि,
फलाशा दोषदाऽर्पणे ।।५।। देव ! मैं अपना मनोभाव तुमको अर्पित करता हूं किन्तु विनिमय में तुम मुझे क्या दोगे ? ओह ! क्षण में ही मैंने जान लिया कि 'अर्पण में फलाशा करना दोषप्रद है।'
तवाहमिति मे बुद्धिः, त्वं ममेत्यपि सादरम् । परे जानन्तु मा वा किं,
साक्ष्यापेक्षोऽसि सर्ववित् ! ॥६॥ मैं मानता हूं कि मैं तुम्हारा हूं और तुम मेरे हो। दूसरे इसे माने या न मानें, किन्तु सर्ववित् ! क्या तुम्हारे सामने भी इसका साक्ष्य देना होगा?
किं करोमि तवाऽर्थ. हे, देव ! नापेक्ष्यतामिति । ममार्थं किं विधाताऽसि,
ममापेक्षा . महीयसी ।।७।। हे देव ! मैं तुम्हारे लिए क्या करता हूं इसकी तुम अपेक्षा न करो। किन्तु मेरी यह महान् अपेक्षा है कि तुम मेरे लिए क्या करते हो ?
कर्त त्वमात्मनोऽपास्य, भक्तानां किं करिष्यसि । यत्कृतं तत्कृते हेतुभवे: स्यां सदृशस्तव ।।८।।
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