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________________ स्वामी ने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया। उस प्रोत्साहन से संस्कृत में लिखने की. रुचि बढ़ गई। फिर कुछ ऐसा बना कि मैं प्रायः संस्कृत में ही लिखने लगा। प्रस्तुत संकलन में इक्कीस वर्ष की अवस्था से अब तक—पैंतीस वर्ष की स्फुट रचनाएं संकलित हैं। इनके पीछे एक इतिहास की शृंखला है। अच्छा होता कि प्रत्येक रचना की पृष्ठभूमि में रही हुई स्फुरणा का इतिहास मैं लिख पाता। पर काल की इस लम्बी अवधि में जो कुछ घटित हुआ वह पूरा का पूरा स्मृति-पटल पर अंकित नहीं है । जो कुछ अंकित है उसको लिपिबद्ध करने का भी अवकाश मैं नहीं निकाल पाया। कुछेक स्फुरणाओं को मैं उल्लिखित करना चाहता हूं। उनके आधार पर यह समझा जा सकता है कि कवित्व स्फुरणा की फलश्रुति होता है । ___ मैं एक कमरे में बैठा था। सामने छोटे से छज्जे पर कबूतर बैठे थे। सूर्यास्त हो चुका था। अंधेरा गहरा हो रहा था। कबूतर उस छोटे-से छज्जे पर अपने पंजे टिकाकर पर फड़फड़ा रहे थे। उस फड़फड़ाहट ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। उसी समय मैं संवेदना के स्वर में बोल उठा-- "अनन्तलीला प्रथमे क्षणे तु, छदौं गृहाणां स्थितिरुत्तरस्मिन् । दिने च रात्रौ च कियान् प्रभेद, इदं कपोता हि विदन्ति नान्ये ।" 'पहले क्षण में अनन्त आकाश में उड़ने वाले ये कबूतर दूसरे क्षण में घर के छोटे से छज्जे पर आ बैठते हैं । दिन और रात में कितना अन्तर होता है-इसे कबूतर (या पक्षी) ही समझ सकते हैं। दूसरे नहीं समझ सकते।' ____ मैं एक बार शौच के लिए जा रहा था । जैसे ही गांव को पार कर बाहर गया वैसे ही एक गधा रेंकता हुआ सामने आया। उसकी ध्वनि बड़ी कर्कश थी। वह कान के पर्दो को बींधती हुई भीतर जा रही थी। मैं उससे आहत हुए बिना नहीं रहा। मैंने उस गधे को सम्बोधित करते हुए कहा "रे रे खर ! तूष्णीं भव, दृष्टं तवककौशलम् । दुर्लभा वाग्मिता चेत्ते, कों कि सुलभो नृणाम् ॥" -गधे ! मौन हो जा। मैंने तेरा वाक्-कौशल देख लिया । यदि तेरा वाक्कौशल दुर्लभ है तो क्या मनुष्यों के कानों के पर्दे सुलभ हैं ? मैं आचार्यश्री तुलसी द्वारा रचित 'जैन सिद्धान्त दीपिका' का सम्पादन कर रहा था। किसी गहन विषय की स्पष्टता के लिए अनेक ग्रन्थ देखने पड़े। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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