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प्रस्तावना मैं ग्यारह वर्ष की अवस्था में मुनि बना था और तब से ही पदयात्री । जीवनयात्रा बाहर और भीतर-दोनों का स्पर्श करती है । मैं मुनि हूं इसलिए मैंने बाह्य-जगत् से अस्पृष्ट रहने का प्रयत्न किया है, फिर भी वस्तु-जगत् में जीने वाला कोई भी देहधारी बाह्य का स्पर्श किए बिना नहीं रहता । अन्तश्चेतना घटना से जुड़े या न जुड़े, किन्तु मन उसका स्पर्श और उसके फलितों का विश्लेषण भी करता है । प्रतिक्रिया से लिप्त होना या न होना अलग प्रश्न है, किन्तु उसका साक्षात् होता ही है। मैंने अन्तर्यात्रा भी की है, अन्तश्चेतना के आलोक में बाह्य-जगत् को समझने का प्रयत्न किया हैं। मैं सिद्ध होने का दावा नहीं करता, इसलिए इस वास्तविकता को स्वीकार करता हूं कि बाह्य-जगत् में घटित होने वाली घटनाओं से प्रभावित भी हुआ हूं, उनके आघातों से आहत और प्रतिक्रियाओं से प्रताड़ित भी हुआ हूं। प्रभाव, आहनन और प्रताड़न के क्षणों में जो संवेदन जागा, भावनाएं प्रस्फुटित हुईं और वाणी ने मौन भंग किया, वही मेरा कवित्व है। ___ मैं बहुत छोटे गांव (टमकोर-राजस्थान) में जन्मा था। उस जमाने में वहां पढ़ाई का कोई खास प्रबंध नहीं था। मैं और मेरे कुछ साथी गुरुजी की पाठशाला में पढ़ते थे—न हिन्दी और न संस्कृत, केवल पहाड़े। मुनि बनते ही पढ़ाई का क्रम शुरू हुआ। मैं प्राकृत और संस्कृत के ग्रन्थ पढ़ने लगा। पूज्य कालूगणी के निर्देशानुसार मुनि तुलसी (वर्तमान में आचार्य तुलसी) मेरे अध्यापक बने । उस समय अध्यापन-परिपाटी में ग्रन्थों को कंठस्थ करने पर अधिक बल था। मैंने कुछ ही वर्षों में अनेक ग्रन्थ कंठस्थ कर लिये, पर समझने की क्षमता विकसित नहीं हई। सोलह वर्ष की अवस्था पार करते-करते मैंने कुछ विकास का अनुभव किया। संस्कृत भाषा में कुछ-कुछ बोलना और लिखना शुरू हुआ। सतरहवें वर्ष में कुछ श्लोक बनाएं। अब मुनि तुलसी आचार्य बन चुके थे। उनके आचार्य पदारोहण का दूसरा समारोह था। उस समय वे श्लोक मैंने पढ़े। मंत्री मुनि मगनलालजी
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