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हजारों-हजारों प्रयोगों और अन्वेषणों के बावजूद सभी प्राणियों के लिए कोई सार्वभौम नियम नहीं बताया जा सका और भविष्य में भी नहीं बताया जा सकेगा ।
प्राणी और पदार्थ में यह मौलिक अन्तर है कि पदार्थ की ओरा निश्चित होती है । उसमें परिवर्तन करने वाला नियामक तत्त्व नहीं होता । प्राणी की ओरा बदलती रहती है । उसमें कभी काला, कभी लाल, कभी पीला, कभी नीला और कभी सफेद रंग उभर आता है। आदमी के भावों के अनुरूप रंग बदलते रहते हैं। आदमी गुस्से में होता है तो लाल रंग का ओरा बन जाता है। आदमी शांत होता है तो सफेद रंग / का ओरा बन जाता है । ओरा प्राणी का लक्षण है, किन्तु इसके साथ इतना और जोड़ देना चाहिए कि परिवर्तनशील ओरा प्राणी का लक्षण है । लेश्या प्राणी का लक्षण है ।
यह लेश्या का बहुत बड़ा कारखाना है । कषाय की तरंगें और कषाय की शुद्धि होने पर आने वाली चैतन्य की तरंगें - इन सब तरंगों को भाव के सांचे में ढालना, भाव के रूप में इनका निर्माण करना, और उन्हें विचार तक, कर्म तक, क्रिया तक पहुंचा देना - यह इसका काम है । यह सबसे बड़ा संस्थान है। सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के बीच में यदि कोई संपर्क सूत्र है तो वह वास्तव में है लेश्या । लेश्या ही संपर्क सूत्र है । मन, वचन और काया की प्रवृत्ति के द्वारा जो कुछ बाहर से आता है वह कच्चा माल होता है । लेश्या उसे लेती है और उसे कषाय तक पहुंचा देती है । वह कच्चा माल कषाय के संस्थान तक पहुंच जाता है। यह लेश्या का काम है। फिर भीतर से वह कच्चा माल पक्का बनकर आता है। जो कर्म जाता है वह फिर विपाक होकर आता है । भीतरी स्राव जो रसायन बनकर आता है उसे लेश्या फिर अध्यवसाय से लेकर हमारे सारे स्थूल तंत्र तक, मस्तिष्क और अन्तःस्रावी ग्रन्थियों तक पहुंचा देती है । इसलिए यदि हमारे स्थूल शरीर में लेश्या के प्रतिनिधि संस्थानों को खोजें, उनके बिक्री संस्थानों को खोजें तो जितनी अन्तःस्रावी ग्रन्थियां हैं, ये सारी लेश्या की प्रतिनिधि संस्थाएं हैं, बिक्री संस्थान हैं। उनके सेल्स मैनेजर वहां बैठे हैं। अच्छे ढंग से उनके माल की सप्लाई
स्थूल और सूक्ष्म जगत् का सम्पर्क - सूत्र ४७
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