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तिर्यञ्च बनाता है, प्राणियों की जितनी जातियां-उपजातियां हैं, वे सारी इसी की निर्मितियां हैं। वह अमुक-अमुक प्रकार के सेलों का निर्माण करता है और अपने-अपने ढंग के प्राणी निर्मित हो जाते हैं। हर प्राणी के सेल भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं और वे भिन्न-भिन्न प्रकार का काम करते हैं। बड़ी बुद्धि से काम लेना पड़ता है इस गति के कारखाने को। एक छोटा-सा उदाहरण लें। इन वर्षों में मच्छरों को मारने के लिए डी. डी. टी. का प्रयोग किया गया। प्रारंभिक वर्षों में मच्छर कम होने लगे। किन्तु मच्छरों के कोशाणुओं ने ऐसा परिवर्तन कर लिया कि अब डी. डी. टी. का उन पर कोई असर नहीं होता। वे बढ़ रहे हैं।
इन्द्रियों का संस्थान भी बहुत बड़ा है। यह सारी इन्द्रियों का काम संचालित करता है। जीव का एक लक्षण है-गति। जो मनुष्य होता है, पशु होता है, हम उसे जीव मानते हैं। जीव का दूसरा लक्षण है-इन्द्रिय। जिसके इन्द्रियां होती हैं वह जीव होता है। अजीव में इन्द्रियां नहीं होती।
__ कषाय का कारखाना भी बहुत विशाल है। जीव का तीसरा लक्षण है-कषाय। जो क्रोध करता है, मान और माया करता है, लोभ करता है, वह जीव होता है। पत्थर में न क्रोध है, न मान है, न माया और न लोभ है। वह अजीव है। जिसमें कषाय है वह जीव होता है। जिसमें कषाय नहीं है, वह जीव नहीं होता। वह अजीव होता है। कषाय हमारे स्थूल व्यक्तित्व का एक लक्षण है। कषाय के परमाणुओं को संप्रेषित करना, उनके स्रावों को बाहर भेजना, जो सूक्ष्म जगत् में सूक्ष्म हैं, उन परमाणुओं को स्थूल बनाकर और एक भाव का रूप देकर बाहर भेजना इस कारखाने का काम है।
चौथा संस्थान है लेश्या का। जिसमें लेश्या होती है वह जीव होता है। जिसमें 'ओरा' होती है, वह जीव होता है। यहां एक प्रश्न उभरता है कि ओरा तो अचेतन में भी होती है, अजीव में भी होती है। जो भी पदार्थ हैं, उनमें से रश्मियां निकलती हैं। पदार्थ का लक्षण ही है-रश्मियों को विकीर्ण करना। हर पदार्थ से रश्मियां निकलती हैं। रश्मियां ओरा बन जाती हैं। एक ईंट की रश्मियां भी ओरा बन जाती हैं। ऐसी स्थिति में हम यह कैसे माने कि जिसमें लेश्या होती है, ओरा होती है वह
स्थूल और सूक्ष्म जगत् का सम्पर्क-सूत्र ४५
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