________________
कर पाते।
मन क्रिया तंत्र का एक अंग है। यह कर्मचारी है। इसका काम है निर्देशों का पालन करना। यह न अच्छा करता है और न बुरा। अच्छे या बुरे का सारा दायित्व स्वामी का होता है, कर्मचारी का नहीं। मन एक नौकर है। इसका काम है स्वामी की आज्ञा का पालन करना। इसको कहा कि यह ले जाओ और वहां पहुंचा दो। यह ले जाता है, उचित स्थान पर पहुंचा देता है। अच्छे-बुरे का दायित्व इस पर नहीं है। किन्तु सारा दोष मन पर ही मढ़ा जाता है। यही सामने आता है। काम करने वाला ही सीधा सामने आता है। आदेश देने वाला सामने नहीं आता, वह पर्दे के पीछे खड़ा रहता है। व्यवहार में भी देखते हैं कि नौकर किसी का आदेश लेकर आता है और वह आदेश प्रिय नहीं है तो सबसे पहले नौकर ही रोष का भाजन बनता है। सारा रोष उस पर उतर आता है। प्राचीन काल में जब एक दूत अपने राजा का संदेश लेकर दूसरे राजा के पास जाता था, और यदि वह संदेश प्रतिकूल होता तो राजा के मन में आता कि इस दूत को मार डालना चाहिए। किन्तु उस समय राजाओं के बीच ऐसी संधि होती थी कि दूत को नहीं मारा जाता था। मन के साथ भी संधि है। वह बेचारा दूत है। अनुकूल और प्रतिकूल निर्देशों का वह उत्तरदायी नहीं है। वह तो मात्र संदेशवाहक है। यदि मन के साथ कोई संधि नहीं होती तो मन कभी मार डाला जाता। बेचारा निर्दोष है, फिर भी सारा दोष उसी का माना जाता है। अध्यवसाय और चित्त ने उसे जो काम सौंपा, उसका वह निर्वाह करता है।
मूल है द्रव्य आत्मा, मूल है चैतन्य। उस पर पहला वलय है-कषाय-तंत्र का। दूसरा वलय है-योग-तंत्र का। योग का अर्थ है-प्रवृत्ति। मन योग का ही अंग है। मन का काम है प्रवृत्ति करना। इसका स्वाभाव है प्रवृत्ति करना। यह कैसे बदलेगा? मन का काम है प्रवृत्ति करना। वचन का काम है प्रवृत्ति करना और शरीर का काम है प्रवृत्ति करना। मन को यदि आप पैदा करेंगे तो वह प्रवृत्ति करेगा। मन स्थायी तत्त्व नहीं है। जब आप उसको पैदा करते हैं तब वह उत्पन्न
व्यक्तित्व की व्यूहरचना : आत्मा और शरीर का मिलन-बिन्दु २३
प्रतिहए। किन्तु उस जाता था। मनर्देशों का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org