________________
लाने। उसका मन बदल गया। उसने सोचा-मैं पौधे को नहीं जलाऊंगा। यह सोचकर वह पौधे के पास गया। ग्राफ की सुई स्थिर थी। कोई ग्राफ नहीं आया।
मनुष्य भी दूसरे के मनोभावों को इस प्रकार नहीं जान पाता, वनस्पति का जीव वह ज्ञान कर लेता है। एक प्रश्न आता है कि जब वनस्पति में या एक इन्द्रिय वाले जीवों में मन नहीं होता तो फिर वे इतना सूक्ष्म ज्ञान कैसे कर लेते हैं? यह प्रश्न आता है, किन्तु हमें यह याद रखना है कि मन ज्ञान का साधन नहीं है। वास्तव में मन जानने का साधन नहीं है। जहां से ज्ञान का स्रोत प्रवाहित होता है, वह है अध्यवसाय। हमने अध्यवसाय की उपेक्षा कर सारा भार बेचारे मन पर डाल दिया। ऐसा लगता है कि हाथी का भार गधे पर डाल दिया। कैसे उठाए वह उस भार को!
पहले है चैतन्य केन्द्र आत्मा। फिर आता है कषाय का तंत्र और उसके बाद आता है अध्यवसाय का तंत्र। यहां तक स्थूल शरीर का कोई संबंध नहीं रहता। यह केवल कर्म शरीर और तेजस् शरीर से ही संबंधित रहते हैं। यहां स्थूल अवयवों का कोई संबंध नहीं रहता। ‘परं परं सूक्ष्म'-'तेजस् शरीर सूक्ष्म है और कर्म शरीर उससे भी अधिक सूक्ष्म ।' ये दोनों शरीर हैं, पर इनके कोई अवयव नहीं हैं। न हाथ हैं, न पैर हैं और न मस्तिष्क है। कोई अवयव नहीं। न सुषुम्ना है और न सुषुम्नाशीर्ष है। जानने का कोई माध्यम नहीं है। वहां सारा ज्ञान अध्यवसाय से होता है। वह बिना माध्यम और अवयवों से रहित ज्ञान है। यह एक रेखा है। यह स्थूल शरीर के बिना होने वाले ज्ञान की सीमा-रेखा है। इससे परे है स्थूल शरीर से होने वाले ज्ञान की सीमा-रेखा। अध्यवसाय तंत्र के स्पंदन आगे बढ़ते हैं और वे स्थूल शरीर में उभरते हैं। जब वे स्थूल शरीर में उतरते हैं, तब शरीर के साथ आत्मा का स्पंदन जुड़ता है। वहां सबसे पहले चित्त तंत्र का निर्माण होता है। स्कूल में आत्मा का पहला पड़ाव है चित्त का निर्माण। चित्त का निर्माण मस्तिष्क के माध्यम से होता है। अब ज्ञान स्थूल शरीर के अवयवों के माध्यम से अभिव्यक्त होने लगता है। यहां ज्ञान अवयवों का सहयोग लेकर ही २० आभामंडल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org