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कृष्ण और क्राइस्ट को समझ
को पढ़ लेने पर भी समझेंगे वही जो अपने स्वार्थ को सिद्ध करने वाला हो। महावीर को समझने के लिए महावीर की भूमिका तक पहुंचना आवश्यक है। परन्तु उस भूमिका तक पहुंचने में बहुत समय लगेगा। इतना तो अवश्य ही हो जाना चाहिए कि साधक उस भूमिका की दिशा में प्रयाण कर दे। हम बुद्ध को समझना चाहें, राम को समझना चाहें, कृष्ण और क्राइस्ट को समझना चाहें या अन्य किसी अवतार या महापरुष को समझना चाहें तो यदि हम उनकी भूमिका की दिशा में पैर नहीं बढ़ायेंगे तो उनके उपदेश का हम वही अर्थ ग्रहण करेंगे जो भक्त ने ग्रहण किया था। जितने व्याख्याकारों ने अनुभव के स्तर पर पहुंचे बिना शास्त्रों की व्याख्याएं की हैं, उन्होंने शास्त्रों के अर्थ के साथ अन्याय ही किया है। उन्होंने सत्य पर अपनी व्याख्या का पर्दा डाल दिया जिससे व्याख्या पढ़ने वाला शास्त्र की सचाई तक न पहुंच सके। इसलिए आवश्यक है कि हम ध्यान के द्वारा अपनी चेतना का जागरण करें। जिससे कि हम सचाई तक पहुंच सकें, यथार्थता का स्पर्श कर सकें। केवल शब्दों के द्वारा वहां नहीं पहुंचा जा सकता है। हजारों-हजारों वर्ष पहले ही शास्त्रगत अनुभूतियों को हम शब्दों के द्वारा कैसे पकड़ सकते हैं? अनुभूति को पकड़ने के लिए अनुभूति के स्तर पर जाना जरूरी है। महापुरुष की चेतना को समझने के लिए महापुरुष जैसी चेतना का निर्माण करना होता है। चेतना का यह निर्माण, चेतना की यह जागृति मात्र ध्यान के द्वारा ही संभव हो सकती है। हम मूर्छा को तोड़ने के लिए चेतना को जगाएं। इस जागृति के द्वारा दो कार्य सम्पन्न होंगे। पहला कार्य होगा कर्म-तंत्र का शोधन और दूसरा कार्य होगा भाव-तंत्र का शोधन। चेतना ही एक ऐसा शस्त्र है जिसके द्वारा ये दोनों काटे-छांटे जा सकते हैं। उनका शोधन हो सकता है।
चेतना के जागरण की बात लेश्या को समझे बिना नहीं समझी जा सकती। यदि हम ध्यान का अभ्यास करना चाहें, अध्यात्म का विकास करना चाहें, अध्यात्म का उन्नयन करना चाहें और अध्यात्म के द्वारा समस्याओं को सुलझाना चाहें तो यह आवश्यक होगा कि चेतना व्यापक बने। चेतना को व्यापक बनाने का अर्थ है चेतना की पदार्थ-प्रतिबद्धता
लेश्या : एक प्रेरणा है जागरण की २३१
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