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के सेवन की जरूरत नहीं है। ध्यान के लिए मूर्छा बढ़ाने वाले उपायों और उपक्रमों की जरूरत नहीं है। जरूरत है सतत जागरण की। हम अपने चैतन्य के प्रति जागरूक रहें। मन को शून्य बनायें। मन की शून्यता का अर्थ इतना ही होगा कि मन में कोई विकल्प न हो। चैतन्य की अनुभूति सतत होती रहे। यही है विचारशून्यता, विकल्पशून्यता। इस भूमिका पर पहुंचने पर चैतन्य जागरण होगा, तब साथ-साथ एक प्रश्न उठेगा कि जब हम इस कर्म-तन्त्र से परे चले जाते हैं, जब हम इस बाह्य व्यक्तित्व से परे चले जाते हैं, तब हमारे जीवन की यात्रा कैसे चलेगी? जीवन-व्यवहार कैसे चलेगा? हम जीवन-व्यवहार में सफल कैसे होंगे? जब भूख का प्रश्न, पारस्परिक सहयोग का प्रश्न, रोटी का प्रश्न, कपड़ों का प्रश्न-ये प्रश्न जब नग्न सत्य बनकर हमारे सामने आते हैं
और हम भाव-तन्त्र का शोधन करने के लिए बैठ जाते हैं तब क्या जीवन में कठिनाइयां पैदा नहीं होंगी? क्या यह ध्यान हमें अव्यावहारिक नहीं बना देगा? क्या जीवन की समस्याएं उग्र बनकर हमारे सामने नहीं नाचने लगेंगी? ये प्रश्न स्वाभाविक हैं और ये प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में टकराते हैं। जब हम विचार की भूमिका में जीते हैं और विचार से परे की बात सोचते हैं, तब विचार अवश्य टकराते हैं। विचार का काम है टकराना। जब हम निर्विचार में चले जाते हैं तब ये सारे प्रश्न नहीं टकराते। जो भाव-तन्त्र में चला जाता है, उसके मस्तिष्क में ये प्रश्न नहीं टकराते किन्तु जब आदमी भाव-तन्त्र की ओर चलने की बात सोचता है, तब ही ये प्रश्न टकराने लगते हैं। क्योंकि यह सोचना भी विचार का काम है और टकराना भी विचार का काम है। विचार विचार से अवश्य टकराएगा। विचार विचार में अवश्य ही संघर्ष होगा। इस प्रश्न का समाधान मैं अपनी भाषा में दूं तो आपको कैसा ही लगेगा। क्योंकि मेरी अभिव्यक्ति की भूमिका और आपके समझने की भूमिका में अन्तर है। जो बात ध्यान की भूमिका पर समझी जानी चाहिए, वह बात तर्क की भूमिका पर, विचार की भूमिका पर समझी जाए तो कठिनाई हो सकती है। मुझे यही कठिनाई का अनुभव हो रहा है। मैं यदि समझाऊं तो भी बात समझ में नहीं आएगी।
लेश्या : एक प्रेरणा है जागरण की २२५
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