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और पागलपन - दोनों साथ-साथ चलते हैं । न जाने इस जगत् का क्या नियम है कि हर क्षण हर भाग में विरोधाभास उपलब्ध है। इन विरोधाभासों की स्थिति में भी महावीर ने अनेकान्त का प्रतिपादन किया था । उन्होंने कहा - 'हम विरोधाभासों को नहीं मिटा सकते। किसी की शक्ति नहीं कि वह उन्हें मिटा दे । हम केवल अपनी दृष्टि में सन्तुलन ला सकते हैं, समन्वय ला सकते हैं, सापेक्षता ला सकते हैं, और विरोधों में अविरोध देख सकते हैं। यह हमारी सीमा में है । किन्तु प्रकृतिगत विरोधाभासों को हम मिटा नहीं सकते। मनुष्य बीमार भी है और स्वस्थ भी है। बीमारी एक अपाय है। उसको मिटाने का उपाय भी है । अपाय और उपाय- दोनों साथ-साथ चलते हैं। जितने अपाय हैं उतने ही उपाय हैं। अपाय है तो उपाय खोजना होगा। जब अपाय सामने आया तब मनुष्य ने उपाय खोजा । शरीर बीमार होता है। बीमारी एक अपाय है। मनुष्य ने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए चिकित्सा पद्धति खोजी । शरीर की रुग्णता एक अपाय है। चिकित्सा पद्धति उसका उपाय है। मन की रुग्णता एक अपाय है। मनुष्य ने अपाय खोजा कि मन स्वस्थ रह सके और वह मानसिक स्वास्थ्य के साथ जी सके । दूषित भाव एक अपाय है। मनुष्य ने उपाय खोजा कि भाव प्रसन्न रह सके, निर्मल और निर्दोष रह सके। भाव का दोष आध्यात्मिक बीमारी है तो भाव को स्वस्थ रखना आध्यात्मिक चिकित्सा है। ध्यान की साधना इसलिए है कि उससे भाव शुद्ध कर सकें, विचारों को स्वस्थ रख सकें और साथ-साथ शरीर को भी स्वस्थ रख सकें । भाव का स्वास्थ्य विचारों का स्वास्थ्य और शारीरिक स्वास्थ्य तीनों स्वास्थ्य हमें उपलब्ध हों, इसीलिए ध्यान की साधना करते हैं।
हम दीर्घ श्वास का प्रयोग करते हैं। यह इसलिए कर रहे हैं कि भीतर में जो विष भरा है, जमा हुआ है, वह निकल जाए और शुद्ध प्राण-शक्ति का प्रवेश हो सके। हम समवृत्ति श्वास का प्रयोग इसलिए कर रहे हैं कि मन की मूर्च्छा टूटे, मन की जागरूकता बढ़े। मूर्च्छा और जागरूकता - ये दो धाराएं हैं। एक है मूर्च्छा की धारा और दूसरी है जागरूकता की धारा । जो व्यक्ति मनुष्य को प्रमाद में ले जाना चाहते हैं, शून्यता में ले जाना चाहते हैं, आत्म-विस्मृति में ले जाना चाहते हैं,
१६८ आभामंडल
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