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की होती है। एक प्रकार की लेश्या का सम्बन्ध है कषाय से और दूसरी प्रकार की लेश्या का सम्बन्ध है योग से। 'कषायप्रवृत्तिरंजिता लेश्या'-लेश्या कषाय की प्रवृत्ति (उदय) से रंजित होती है और लेश्या योग के द्वारा संचालित होती है। लेश्या का सम्बन्ध दो आन्तरिक शक्तियों से है-कषाय से और योग से। योग-लेश्या मानसिक आभामण्डल (मेण्टल ओरा) का निर्माण करती है और कषाय लेश्या नावनात्मक आभामण्डल (इमोसनल
ओरा) का निर्माण करती है। इस प्रकार आभामण्डल में दो तत्त्व काम करते हैं-एक मानस् और दूसरा भावना। कषाय का स्रोत जितना तीव्र होता है, हमारी शक्तियां उतनी ही क्षीण होती हैं और तैजस्-शरीर दुर्बल बनता चला जाता है। चंचलता अधिक होती है, आभामण्डल क्षीण होता जाता है, मानस् का आभामण्डल क्षीण होता जाता है। क्योंकि मन जितना सक्रिय रहेगा, वाणी जितनी सक्रिय रहेगी और शरीर जितना सक्रिय रहेगा, उतनी ही शक्ति का व्यय अधिक होगा। जब शक्ति का व्यय अधिक होता है तब उसका संग्रह नहीं हो सकता। शक्ति के अतिरिक्त संग्रह के बिना नयी दिशाओं का उद्घाटन नहीं हो सकता, साधना के नये आयाम नहीं खुल सकते। इसलिए शक्ति के अतिरिक्त व्यय को रोका जाए। इसका एक मात्र उपाय है कायोत्सर्ग। हम कायोत्सर्ग करें, शिथिलता का अनुभव करें, जिससे कि हमारे शरीर की कोशिकाएं, हमारे शरीर का कण-कण विश्राम ले सके और उसकी शक्ति खर्च न हो, संचित रहे। श्वास को शांत करें। लम्बा श्वास लें। श्वास को मंद करें, जब श्वास मंद होता है तब शिथिलन होता है, कायगप्ति और कायोत्सर्ग सधता है, ऑक्सीजन की खपत कम हो जाती है। प्राण-शक्ति का व्यय कम हो जाता है। हम कम बोलें, अनावश्यक न बोलें। मौन रहना सीखें। विद्युत् का व्यय कम हो जाएगा। वाणी के साथ जो विद्युत् खर्च होती है वह बच जाएगी। हम उसका दूसरा उपयोग कर सकेंगे। हम वाक्गुप्त बनें, मौन करें, विचार भी कम करें। विचारों के चक्र को तोड़ना सीखें। विचारों के चक्र से मस्तिष्कीय ऊर्जा इतनी खर्च होती है कि उसकी पूर्ति बड़ी कठिनाई से की जा सकती है। ऐसे ही मस्तिष्क को विद्युत् की बहुत जरूरत होती है। हमारे ऊपर का भाग जो शरीर के भाग
आभामण्डल और शक्ति-जागरण (२). १६५
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