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बहुत बड़ा अनर्थ मानते हैं। उसकी बात करने में लज्जा का अनुभव करते हैं। इतना अस्वाभाविक डर, इतना काल्पनिक भय कि भीतर मे काम की आग भभकती है और बाहर से इतना पानी डालने का प्रयास होता है, दिखावा होता है कि भीतर कुछ नहीं जल रहा है। इस दोहरे व्यक्तित्व ने, काल्पनिक भय ने अनेक प्रश्न पैदा कर दिए और नीत्से जैसे प्रबुद्ध व्यक्ति को ये बातें धर्म के संदर्भ में लिखनी पड़ी। इसमे सचाई है। इसे नकारा नहीं जा सकता। हमारी धारणा है कि आंख देखती है। उसमें विकार भी आता है। तो आंख को फोड़ देना चाहिए। कितनी आंखें फोड़ेंगे? क्या सारा संसार अंधा बन जाएगा? नयी समस्या पैदा हो जाएगी।
काम स्वाभाविक है। साधना के प्रारंभ में ही यदि कोई व्यक्ति यह प्रदर्शित करता है कि वह काम से ऊपर उठ गया, निष्काम बन गय, वीतराग बन गया तो यह धोखा है, छलना है। यह बहुत बड़ी प्रवंचना है। अपने आपको धोखा, दूसरों को भी धोखा। हम यह मानकर चलें कि जो व्यक्ति साधना शुरू करता है, दिशान्तरण का प्रयत्न शुरू करता है वह एक ही दिन में सिद्ध नहीं हो जाता। प्रयत्न को स्वीकार करें, मार्गान्तरण को स्वीकार करें, अभ्यास को स्वीकार करें, साधना को स्वीकार करें, किन्तु सिद्धि का प्रदर्शन न करें, सिद्ध होने का प्रदर्शन न करें।
स्वाभाविक वृत्तियां मनुष्य में जागती हैं। साधक में भी जागती हैं और सामान्य मनुष्य में भी जागती हैं। साधक वह होता है जो वृत्तियो के मार्गान्तरीकरण की दिशा में प्रस्थान कर चुका होता है। और कोई अन्तर नहीं आता। जो इस दिशा में यात्रा प्रारंभ नहीं करता, वह साधक नहीं होता, भले फिर वह गृहस्थ हो या संन्यासी। जो इस दिशा में यात्रा प्रारंभ कर देता है, वह साधक होता है, भले फिर वह गृहस्थ हो या संन्यासी। प्रश्न है प्रयाण का। प्रयाण करने से पूर्व यह प्रश्न आएगा कि हमारा यात्रा-पथ-कौन-सा है? हमारे प्रयाण की दिशा कौन-सी है?
राग का प्रवाह जो काम की दिशा में जाता है, उसका सबसे बड़ा कारण है तनाव। व्यक्ति में तनाव जितना होता है, उतना ही काम प्रबल १७८, आभामंडल
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