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की। हमलात की साधना में उन्हें पकड़ लेता हमारा मन सूक्ष्म
हैं और कभी-कभी दिखाई दे जाते हैं। जब हमारा मन सूक्ष्म होता है, एकाग्र होता है, तब वह उन्हें पकड़ लेता है। ___ज्योति की साधना में कुछ बाधाएं भी हैं। ये बाधाएं हैं वृत्तियों की। हमने बहुत सारी वृत्तियां अर्जित कर रखी हैं और ये समय-समय पर उभरती रहती हैं। हमारे नाड़ी-संस्थान में तरंगें उठती रहती हैं। कभी किसी चैतन्य केन्द्र से तरंग उठती है और कभी किसी चैतन्य केन्द्र से। नाना वृत्तियां, नाना केन्द्र और नाना प्रकार की तरंगें। ये तरंगें स्नायुओं को उत्तेजित करती हैं। उत्तेजना अभिव्यक्त होती है। यह साधना में बाधा बन जाती है। हम अभ्यास यह करते हैं कि तरंग न उठे, हमारा स्नायु-संस्थान उस तरंग को स्थान न दे, उसे अपने पर न उतारे। हम स्नायु-संस्थान के शोधन की साधना करते हैं, संस्कारों के शोधन की साधना करते हैं। साधना में सबसे बड़ी बाधा है क्रोध की, भय की और काम-वासना की। ये तीन मुख्य बाधाएं हैं। कभी अप्रियता की अनुभूति होती है और तत्काल क्रोध उभर आता है। कभी काम की तरंगें उठती हैं। भय की तरंग तो बनी ही रहती है। जब तक साधक इन तरंगों से छुटकारा नहीं पा लेता तब तक वह निर्विघ्न रूप से आगे नहीं बढ़ सकता। इनसे निपटने से पहले हमें अपने दृष्टिकोण को शुद्ध बनाना होगा। हमारा दृष्टिकोण बहुत संक्रान्त है। वह एक पारदर्शी स्फटिक है। इसकी भी एक कठिनाई है। जो पारदर्शी होता है वह दूसरे का प्रतिबिम्ब बहुत जल्दी पकड़ लेता है। स्फटिक के सामने जैसा रंग आता है, स्फटिक उस रंग को पकड़ लेता है। वैसा प्रतिभासित होने लग जाता है। दृष्टिकोण की कठिनाई है उसकी पारदर्शिता और पारदर्शिता की कठिनाई है उसकी संक्रामकता। हम इस संक्रामकता से कैसे बचें? हमारे सामने नाना प्रकार के विचार आते हैं और वे हमारे दृष्टि से संक्रान्त हो जाते हैं।
हम अध्यात्म की यात्रा के लिए चलते हैं। हमने तैयारी की कि हम आत्म-दर्शन करें, आत्मा की यात्रा करें। राग हमारे बीच बाधा बनकर खड़ा हो जाता है। वह हमारे दृष्टिकोण में संक्रान्त हो जाता है। अध्यात्म की भाषा में जो राग है, मनोविज्ञान की भाषा में वही
आभामण्डल और शक्ति-जागरण (१) १७१
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