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भी व्यक्ति का मन बुरे विचारों और भावों से भर जाता है। जब संक्लेश का प्रवाह बाहर आता है तब बुरा कार्य न चाहने पर भी बुरा कार्य हो जाता है। न चाहने पर भी इन हाथों से, पैरों से, इंद्रियों से और मांसपेशियों से बुरा कार्य हो जाता है। इसमें व्यक्ति का क्या दोष? व्यक्ति का कोई दोष नहीं, यह सारा दोष है संक्लेश के प्रवाह का, जो आता है और व्यक्ति को बुरा चिन्तन करने, बुरे भाव पनपने और बुरा कार्य करने के लिए बाध्य कर देता है। जब असंक्लेश का प्रवाह बाहर आता है, हम चाहें न चाहें, अच्छा चिन्तन, अच्छा भाव और अच्छा आचरण हो जाता है। इससे यह फलित हुआ कि आदमी कुछ नहीं करता। सब कुछ भीतर का प्रवाह करवाता है। संक्लेश का प्रवाह अथवा असंक्लेश का प्रवाह मनुष्य को प्रेरित करता है बुरा करने के लिए या अच्छा करने के लिए। अच्छे-बुरे के लिए भीतर से आने वाला प्रवाह जिम्मेदार है, मनुष्य नहीं। जैसा प्रवाह, वैसा ही व्यक्तित्व। इसका तात्पर्य यह हुआ कि हम उस कठपुतली की भांति हैं जो आदमी के इशारों पर नाचती है। उसका अपना कोई भी स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इसी प्रकार हमारा शरीर, हमारा मन, हमारी भावना भी भीतर से बहने वाले प्रवाहों के आधार पर नाचने लग जाती है। यह कहकर हम अच्छे-बुरे के उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो सकते।
प्रश्न है कि भीतर से संक्लेश का प्रवाह क्यों आता है? असंक्लेश का प्रवाह क्यों आता है? कभी संक्लेश का प्रवाह और कभी असंक्लेश का प्रवाह-ऐसा क्यों होता है? इस प्रश्न का उत्तर हमें पाना है। एक बड़ा बांध है। उसके दरवाजे हैं। दरवाजा खोलते हैं तो पानी बाहर बहने लगता है। दरवाजे को बन्द रखते हैं तो पानी बांध से बाहर नहीं जाता, भीतर ही रहता है। इसी प्रकार जब हम संक्लेश के दरवाजे को खोलते हैं तो संक्लेश का प्रवाह बाहर आने लग जाता है और जब हम असंक्लेश के दरवाजे को खोलते हैं तो असंक्लेश का प्रवाह बाहर आने लग जाता है। संक्लेश को बाहर लाने वाला 'मैं' हूं और असंक्लेश को बाहर लाने वाला भी 'मैं' हूं, मुझसे भिन्न दूसरा कोई नहीं है। इसका उत्तरदायित्व मनुष्य पर ही है। वही कभी एक दरवाजे को खोलता है और दूसरे ८ आभामंडल
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