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अपने आप शुद्ध होने लगती हैं, उनका रेचन होने लगता है। बिना जागे, बिना उदय में आए, बिना विपाक दिए, बिना फल दिए, एक ऐसी उदीरणा होती है कि वृत्तियों का स्वतः रेचन हो जाता है।
साधक का सर्वोपरि कार्य है ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन करना, न कि वृत्तियों का दमन करना।
जो व्यक्ति धार्मिक होकर भी ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन की प्रक्रिया को नहीं जानता, वह वृत्तियों का संशोधन नहीं कर सकता। वह दमन की स्थिति में चला जाता है।
__ अध्यात्म की समूची साधना, योग की समूची साधना, ध्यान की समूची साधना ऊर्जा के ऊर्चीकरण की साधना है।
किसी का सिर दुःखता है। दूसरा व्यक्ति उसके सिर पर हाथ रखता है, सिर दबाता है। उसको लगता है कुछ आराम हो रहा है। शरीर के किसी भाग में दर्द है। स्पर्श किया जाता है, दबाया जाता है, दर्द मिट जाता है। व्यक्ति को सुख का अनुभव होता है। यह सारा प्राण-शक्ति का कार्य है। एक व्यक्ति की प्राणधारा, विद्युत्धारा दूसरे व्यक्ति की प्राणधारा या विद्युत्धारा से संपृक्त होती है तब सुख का अनुभव होता है। यह प्राण-चिकित्सा है। यदि इसे हम अध्यात्म-चिकित्सा या अध्यात्म-साधना मान लेते हैं, ध्यान की साधना मान लेते हैं तब बहुत बड़ी भ्रान्ति हो जाती है। यह सच है कि प्राण-चिकित्सा के द्वारा रोगों को ठीक किया जा सकता है। प्राण-शक्ति के द्वारा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की विद्युत् को छूकर, उसकी मानसिक कुण्ठाओं को मिटा सकता है, उसकी दमित वासनाओं को रूपान्तरित भी कर सकता है। किसी पुरुष का स्त्री के प्रति अनासक्त भाव हो गया। किसी दुर्घटना के कारण मन में ग्लानि हो गई, प्राण-शक्ति का प्रयोग कर ग्लानि को मिटाया जा सकता है, उस पुरुष में स्त्री के प्रति पुनः अनुराग उत्पन्न हो सकता है। किन्तु यह कोई ध्यान या अध्यात्म का प्रयोग नहीं है। यह मात्र प्राण का प्रयोग है।
स्थूलभद्र मंत्री के पुत्र थे। वे बचपन से ही स्त्री से घबराते थे। स्त्रियों के सहवास से डरते थे। मंत्री को यह अच्छा नहीं लगा। वे अपने १६६ आभामंडल
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