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________________ नहीं हो सकतीं, क्योंकि चेतन को जानने का एक मात्र उपाय है-स्वयं का अनुभव, अपने संवेदनों का निर्मलीकरण और उर्वीकरण। जब तक हम अपने संवेदनों को निर्मल नहीं करेंगे, राग-द्वेष और मूर्छा का जीवन जीएंगे, तब तक आत्मा के बारे में धारणा सही नहीं होगी, तब तक ज्ञाता के विषय में नहीं जाना जा सकेगा। आज धार्मिक लोग आत्मा के प्रश्न को शास्त्रों के माध्यम से हल करना चाहते हैं, तर्क के द्वारा समाधान देना चाहते हैं, आत्मा को वाचिक प्रयत्नों के द्वारा, वाङ्मय द्वारा जानना चाहते हैं, यह विचित्र स्थिति है। एक ओर यह कहा जाता है कि आत्मा तर्कातीत, पदातीत और शब्दातीत सत्य है, दूसरी ओर हम उसे तर्क के द्वारा, पद के द्वारा, शब्द के द्वारा पाना चाहते हैं, यह कितना विरोधाभास है। जो तर्कातीत है वह तर्क के द्वारा नहीं पाया जा सकता है। जो पदातीत है, वह पद के द्वारा नहीं पाया जा सकता। जो शब्दातीत है, वह शब्द के द्वारा नहीं पाया जा सकता। ऐसी स्थिति में हम उस परम सत्ता को इन माध्यमों से कैसे जान सकते हैं, पा सकते हैं? आत्मा को हम स्वयं खोजें। हम केवल शास्त्रों पर निर्भर न रहें, केवल मान्यताओं पर निर्भर न रहें, किन्तु स्वयं खोजें। जब तक हम स्वयं नहीं खोजेंगे तब तक पता नहीं चलेगा। शास्त्रों में लिखा है कि आत्मा है। यह हमारे लिए शाब्दिक सचाई है। ध्यान का प्रयोग किया, अपनी अन्तश्चेतना को जगाया, साक्षात्कार किया और जाना कि आत्मा है, तब वह अपनी सचाई बन जाती है, अनुभव की सचाई बन जाती है। किन्तु शब्दों को पढ़ने वाले के लिए वह केवल शाब्दिक सचाई ही बनी रहती है। बच्चा जल में प्रतिबिम्बित चांद को देखता है और उसे पकड़ने का प्रयत्न करता है। वह मूल चांद नहीं है, उसका केवल प्रतिबिम्ब है। शब्द भी उस आत्मा का वाचक है, प्रतिबिम्ब है, मूल नहीं है। यदि हम मूल को देखने का प्रयत्न नहीं करेंगे और केवल प्रतिबिम्ब को ही देखते रहेंगे तो हमें प्रतिबिम्ब ही हाथ लगेगा, मूल नहीं मिलेगा। सत्य को खोजने का अर्थ ही है कि हम प्रतिबिम्ब पर न अटकें, आगे बढ़ें और मूल तक पहुंचने का प्रयत्न करें। यह हो सकता है कि जिसने ध्यान क्यों? १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003062
Book TitleAbhamandal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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