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ही धर्मशाला में दोनों ठहरे। दोनों एक-दूसरे से अपरिचित । रात को पुत्र के पेट में भयंकर दर्द उठा। वह चिल्लाने लगा। पिता पास के कमरे में सो रहा था। चिल्लाहट के कारण उसकी नींद बार-बार टूट रही थी। उसने अपने सेवक से कहा-'जाओ उस चिल्लाहट को बन्द करो।' सेवक गया। बच्चे के साथ भी नौकर थे। उनको सेठजी की बात कही। उन्होंने कहा-बच्चा है। पेट में भयंकर पीड़ा है। पीड़ा शान्त होते ही स्वतः चुप हो जाएगा। पेट का दर्द बढ़ता ही गया। सेठ झल्ला उठा। उसने अपने सेवकों को आदेश दिया कि जाओ, जो चिल्ला रहा है उसे धर्मशाला से बाहर निकाल दो। दो सेवक गए और उस बच्चे को सामान सहित धर्मशाला से बाहर निकाल दिया। दर्द बढ़ा और बालक एक घण्टा के भीतर-भीतर मर गया। चिल्लाहट शांत हो गई। सेठ ने सुख की नींद ली। सेठ को जब पता चला कि वह मर गया, तब उसने जानना चाहा कि वह कौन था? कहां से आया था? सेठ स्वयं बाहर गया। नौकरों से पूछताछ की तो पता चला कि वह उसका ही लड़का था। अब सेठ के प्राण बाहर निकलने लगे। अरे! मेरा लड़का! पहले तो वह चिल्ला रहा था और अब सेठ चिल्लाने लगा। बच्चा चिल्ला रहा था तब उसे शांत करने वाला सेठ था, और अब सेठ चिल्ला रहा था तब उसे शांत करने वाला कोई नहीं था।
प्रश्न है कि दुःख कहां से आया? क्या वह लड़का मर गया इसलिए सेठ दुःखी हुआ? यदि लड़के के मरने पर सेठ दुःखी होता तो वह दस मिनट पहले ही दुःखी हो जाता। मरने पर उसे कोई दुःख नहीं हुआ, उसे बाहर निकाला तब भी उसे कोई दुःख नहीं हुआ। बच्चे के प्रति कोई सहानुभूति नहीं, संवेदना नहीं, सहयोग नहीं। केवल अपने अहं की पूर्ति करना चाहता था, केवल अपने अहं का प्रदर्शन करना चाहता था
और वह सोच रहा था कि नींद खराब न हो जाए। पर उसे जैसे ही पता चला कि यह मेरा लड़का है, उस पर एक साथ ही दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। जब घटना के साथ मन जुड़ता है, प्रियता और अप्रियता के संवेदन की अनुभूति जुड़ती है तब अकस्मात् सुख या दुःख का अनुभव होता है। हमारे दुःख का मूल परिस्थिति नहीं है, पदार्थ नहीं है, घटना १२० आभामंडल
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